पुराणों मे शिवरात्रि का वर्णन और महत्व



महाशिवरात्रि का मूल

पुराणों में महाशिवरात्रि को लेकर कई तरह के वृत्तांत हैं। जिसमें सबसे अधिक प्रचलित है शिकारी द्वारा अनजाने में की गई शिवरात्रि की कथा । लेकिन यह कथा शिवरात्रि के व्रतफल की कथा है न कि इसकी मूल कथा। मूल कथा कुछ इस प्रकार है -शिव परंब्रह्म हैं। सृष्टि उनकी ही परिकल्पना है सृष्टि के अस्तित्व में आने के पहले चारों और सर्वव्यापक अन्धकार होता है। तब शिव सृष्टि की परिकल्पना करते हैं। ब्रह्माण्ड की रचना करते हैं, त्रिदेवों का गठन होता है। तथा सृष्टि अस्तित्व में आती है। माना जाता है कि सृष्टि के प्रारंभ में इसी दिन मध्य रात्रि परंब्रह्म शिव का ब्रह्मा से रुद्र के रूप में अवतरण हुआ। प्रलय की वेला में इसी दिन प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव करते हुए ब्रह्मांड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त कर देते हैं। इसीलिए इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि कहा गया। जब कल्प के समाप्ति पर शिव सृष्टि को विलीन कर देतें हैं तो एक बार फिर रह जाता है – सिर्फ अन्धकार। ऐसे ही एक अवसर पर (जब पूरी सृष्टि अँधकार में डूबी हुई थी) पार्वतीजी ने शिवजी की पूर्ण मनोयोग से साधना की। शिव जी ने प्रसन्न होकर पार्वती जी को वर दिया। पार्वतीजी ने महादेव से यह वर मांगा कि जो कोई भी इस दिन अगर आपकी साधना करे तो आप उस पर प्रसन्न हो जांए तथा मनवांछित वर प्रदान करें। इस प्रकार पार्वती जी के वर के प्रभाव से शिवरात्रि का प्रारम्भ हुआ।

एक कथा यह भी है कि एक बार ब्रह्मा एवं विष्णु में विवाद हो गया कि उनमें से श्रेष्ठ कौन है, तब शिव एक प्रकाश स्तम्भ (लिंग) के रूप में प्रगट हुए। ब्रह्मा एवं विष्णु ने उस स्तंभ के आदि तथा अंत की खोज में जुट गए। पर आदि तथा अंत रहित महादेव के रहस्य को कौन जान सकता था। इसके लिए ब्रह्मा ने मिथ्या का सहारा लिया तो शिव ने क्रोधित होकर ब्रह्मा का पांचवा सर काट लिया। शिव के क्रोध को शांत करने के लिया विष्णु शिव की स्तुति करने लगे। तब महाशिवरात्रि के अवसर पर शिव उनसे प्रसन्न हुए।

एक अन्य पुराण कथा के अनुसार जब सागर मंथन के समय सागर से कालकेतु विष निकला तब शिव ने संसार के रक्षा हेतु सम्पूर्ण विष का पान कर लिया और नीलकंठ कहलाए। इसी अवसर को महाशिवरात्रि के रूप में मनाया जाता है। महाशिवरात्रि के अवसर पर ही शिव-पार्वती का विवाह भी सम्पन्न हुआ था। फाल्गुन कृष्ण-चतुर्दशी की महानिशा में आदिदेव कोटि सूर्यसमप्रभ शिवलिंग के रुप में आविर्भूत हुए थे। फाल्गुन के पश्चात वर्ष चक्र की भी पुनरावृत्ति होती है अत: फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि को पूजा करना एक महाव्रत है जिसका नाम महाशिवरात्रि व्रत पड़ा। इस तरह शिव और पार्वती को लेकर कई कथाएं आदि काल से हमारे देश में प्रचलित हैं।

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