शिव गीता भाग - 2

गीता प्रसार 




श्रीभगवानुवाच ।




अव्यक्तसे कालकी उत्पत्ति हुई तथा उसीसे प्रधान पुरुषकी उत्पत्ति हुई है और उनसे यह सब जगत उत्पन्न हुआ इस कारण यह सम्पूर्ण जगत ब्रह्ममय है ॥१॥




जो संसारमे सब ओरको अपने कर्ण किये और सबको व्याप्त करके स्थित हो रहा है, सब जगतके पैर जिसके चरण और सबके हस्त, नेत्र, शिर, मुख, जिसके हाथ, नेत्र, शिर, मुख है तथा च श्रुतिः (सहस्त्रशीर्षाः पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात् ) इति ॥२॥




जो सम्पूर्ण इन्द्रिय और गुणोंके आभाससे युक्त शरीरमे स्थित है और जो सब इन्द्रियोंसे वर्जित है सबका आधार सदानन्दस्वरूप अप्रगट द्वैतरहित ॥३॥




संपूर्ण उपमाके योग्य, सबसे परे नित्य तथा प्रमाणसेभी परे, निर्विकल्प, निराभास, सबमें व्यापक, परं अमृत स्वरूप ॥४॥




सबके पृथक्‌ और सबमे स्थित, निरन्तर वर्तमान निश्चल अविनाशी निर्गुण और परंज्योतिस्वरूप ऐसा उस स्थानको विद्वानोनें वर्णन किया है ॥५॥




वह सम्पूर्ण प्राणियोंका आत्मा बाह्य और आभ्यन्तरसे परे जिसे कहते है वही मै सर्वगत शान्तस्वरूप ज्ञानात्मा परमेश्वर हू ॥६॥




यह स्थावर जंगमात्मक संसार मुझसेही उत्पन्न हुआ है, सब प्राणि मेरे ही निवास स्थान है, ऐसा वेदके जाननेवाले कहते है ॥७॥




एक प्रधान और एक पुरुष यह जो दो वर्णन किये है उन दोनोंका संयोग करनेवाला अनादि काल है यह तीनों अनादि है और अव्यक्तमें निवास करते है इनका वो तदात्मक रूप है वही साक्षात मेरा स्वरूप है ॥८॥९॥




जो महतसे लेकर यह सम्पूर्ण जगत उत्पन्न करती है वह संपूर्ण देहधारियोंकी मोहित करनेवाली प्रकृति कहलाती है ॥१०॥




यह पुरुषही प्रकृतिमें स्थित होकर प्रकृतिके गुणोंको भोगता है, अहंकारसहित होनेसे पच्चीसतत्त्वनिर्मित यह देह कहाता है ॥११॥




प्रकृतिका प्रथम विकारही महान कहाता है यह आत्मा विज्ञानशक्तियुक्त स्थित रहता है पीछे उसीसे विज्ञानशक्तिका जाननेहारा अहंकार उत्पन्न होता है ॥१२॥




उस एकही महान आत्माका नाम अहंकार कहा जाता है वही जीव और अंतरात्मा कहा जाता है, यह तत्त्वके जाननेवालोंने कहा है ॥१३॥




यही जन्म लेकर, सुख और दुःख भोगता है यद्यपि वह विज्ञानात्मा है परन्तु मनके संग होनेसे वह मन उसके उपकारक है ॥१४॥




अज्ञानके कारण इस पुरुषको संसारकि प्राप्ति हुई है और प्रकृतिसे पुरुषका संयोग होनेसे कालान्तरमें पुरुषको अज्ञानकी प्राप्ति हुई है ॥१५॥




यह कालही जीवों को उत्पन्न करता और कालही संहार करता है, सम्पूर्ण ही कालके वशमें है, परन्तु काल किसीके वशमे नही है ॥१६॥




वही सनातन सबके ह्रदयमे स्थित होकर इस सबको जानता है और वशमें रखकर शासन करता है, उसेही भगवान प्राणस्वरूप सर्वज्ञ पुरुषोत्तम कहते है ॥१७॥




मनीषी विद्वानोंने इन्द्रियोंसे परे मनको कहा है, मनसे परे अहंकार, अहंकारसे परे महत् है ॥१८॥




महानसे परे अव्यक्त और अव्यक्तसे परे पुरुष है, पुरुषसे परे भगवान प्राण स्वरूप है, उससे यह सब जगत हुआ है ॥१९॥




प्राणसे परे व्योम (आकाश) और व्योमसे परे अग्नि ईश्वर है, सो मै सबसे व्याप्त शान्तस्वरुप हूं और मुझसे यह सब जगत विस्तृत हुआ है ॥२०॥




मुझसे परे और कुछ नही है प्राणी मुझको जानकर मुक्त हो जाता है संसारमे स्थावर जंगम इनमें किसीको भी नित्यता नही है ॥२१॥




केवल एक मै ही व्योमरूप महेश्वर हू सो मै ही सब जगतको उत्पन्न करके संहार करता हूं ॥२२॥




मायास्वरूप मुझमें कालकी संगति होकर मेरी स्थितिसे ही काल सम्पूर्ण जगतके उत्पन्न करनेमे समर्थ हुआ है कारण (कलनात् सर्वभूतानां कालः स परिकीर्तितः) सम्पूर्ण प्राणियोंकी आयुकी संख्या करनेसे ही इसका नाम काल हुआ है ॥२३॥




यही अनन्तात्मा सब जगतको यथायोग्य रखता है, यही वेदका अनुशासन है, किसीको महादेव कालात्मा कालान्त आदिनामसे उच्चारण करते है, यही दैत्योंको संहार करते है इस प्रकार जानना उचित है ॥२४॥




सूतजी बोले - हे ब्रह्मवादी ऋषियो! तुम सावधान होकर सुनो हम उन देवदेव आदि पुरुषका माहात्म्य कहते है जिनसे यह सम्पूर्ण जगत् प्रवृत हुआ है ॥२५॥




शिवजी बोले- अनेक प्रकारके तप ज्ञान दान और यज्ञसे पुरुष मुझे इस प्रकर नही जान सकते जिस प्रकार श्रेष्ठ भक्ति करनेवाले मुझको जाननेको समर्थ होते है इससे केवल श्रेष्ठ भक्ति करनेवाले मुझे शीघ्र जान सकते है ॥२६॥




मै ही सर्वव्यापी होकर सब प्राणियोके अन्तःकरणमे स्थित हूं, हे मुनीश्वरो! मुझे यह संसार सब लोकोंका साक्षी नही जानता है ॥२७॥




जो यह परमात्मा सबके ह्रदयान्तरमे निवास करता है, उसीके अन्तरमें यह सब जगत है वही धाता विधाता कालाग्निस्वरूप सर्वव्यापक परमात्मा मै हू ॥२८॥




मुझको मुनि और सब देवता भी नही जानते है तथा ब्रह्मा इन्द्र मनु औरभी विख्यात पराक्रमी मेरे रूपको यथार्थ जाननेमें समर्थ नही होते ॥२९॥




मुझही एक परमेश्वरको सदा वेद स्तुति करते रहते है, (सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति) और ब्राह्मणादि अनेक प्रकारके छोटे बडे यज्ञोद्वारा यजन करते रहते है ॥३०॥




पितामह ब्रह्मासहित सम्पूर्ण लोक नमस्कार करते है, और योगी जन सम्पूर्ण भूतोंके अधिपति भगवानका ध्यान करते है ॥३१॥




मै ही सम्पूर्ण हवियोंको भोक्ता और फल देनेवाला हूं, मै ही सबका शरीररूप होकर सबका आत्मा सबमे स्थित हू ॥३२॥




मुझे विद्वान् धर्मात्मा और वेदवादी देख सकते है उनके निकट जो नित्यप्रति मेरी उपासना करते है ॥३३॥




ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, धार्मिक मेरे उपासना करते है उनको मै परमानन्द परमपद स्वरूप अपने स्थानको देता हूं ॥३४॥




और जो शूद्र आदि नीच जाति अपने धर्ममें स्थित है और वह मेरे भक्ति करते है वे कालसे यद्यपि मिले हुए है तथापि मेरी कृपादृष्टिसे मुक्त हो जाते है ॥३५॥




मेरे भक्त पापरहित हो जाते है उनका कभी नाश नही होता प्रथम तो यही मेरीप्रतिज्ञा है कि मेरे भक्तोंका कभी नाश नही होता यदि वह बीचमे ही सिद्धि प्राप्त होनेसे पूर्व मृत्तक हो जाय तो फिर योगीके घरमे जन्म ले सत्संगको प्राप्त हो मुक्त हो जाता है ॥३६॥




जो मुर्ख मेरे भक्तोंकी निन्दा करता है उसने देवदेव साक्षात मेरीही निन्दा की और प्रेमसे उनका पूजन करता है उसने मानो मेराही पूजन किया ॥३७॥




परिपुर्ण शिवस्वरूपमें और क्या शुभ किया जाय, जो कुछ शिवके भक्तके निमित्त किया है, वह सब कुछ मुझ शिवस्वरूपके ही वास्ते किया है ॥३८॥




जो प्रेमसे मेरे आराधनके कारण पत्र पुष्प फल जल नियमित होकर प्रदान करता है वह मेरा भक्त और मेरा प्यारा है ॥३९॥




मै ही जगतकी आदिमे सृष्टि उत्पन्न करनेसे ब्रह्मा परमेष्ठी कहा जाता है, तथा पालन करनेसे उत्तम पुरुष परमात्मा इस नामसे गाया जाता है ॥४०॥




मै ही सम्पूर्ण योगियोंका अविनाशी गुरु हू, मै हि धर्मात्माओंका रक्षक और वेदविरोधियोंका नाश करनेवाला हू ॥४१॥




मै ही योगियोंको संसारबन्धनके सब प्रकारके क्लेशसे छूडानेवाला हू, मैही सब प्रकार संसारसे रहित होकर संसारका कारणभी हू ॥४२॥




मै ही सब संसारको उत्पन्न पालन करनेहारा तथा संहार करता हू कारण कि, कार्य अपने कारणमे लय हो जाता है, इससे सब जगत मुझसे उत्पन्न होकर मुझमेंही लय होजाता है तथा च श्रुतिः (विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता) और यह मेरी महाशक्ति लोकको मोहनेवाली माया है जो अनेक प्रकारसे जगतको उत्पन्न करती है (अजामेका लोहितशुक्लकृष्णा बह्वीः मजाः सृजमानाम सरूपाः) इति श्रुतेः ॥४३॥




और मेरीही यह परा शक्ति विद्या नामसे गाई जाती है मै योगियोंके ह्रदयमे स्थित होकर उस अज्ञानकी उत्पन्न करनेवाली संसारमे भ्रमानेवाली मायाको नाश करता हूँ ॥४४॥




मैही सम्पूर्ण शक्तियोंके प्रेरणा करनेवाला हू, और मै ही निवृत करनेवाला हू, मैही अमृतका निधान हू ( स दाधार पृथ्वी द्यामुतेभामिति श्रुतेः) श्रुतिसे भी यह सिद्ध है कि, यह विश्वको धारण कर रहा है ॥४५॥




मैही सम्पूर्ण जगत हूं और मुझमें ही सब जगत है अर्थात यह सब कुछ मै ही हू दूसरी वस्तु कुछ नही है (सर्व खल्विंद ब्रह्म नेह नानास्ति किंचनेति श्रुतेः) यह सब जगत मुझसे ही उत्पन्न होकर मुझमे ही लय हो जाता है (यथोर्णनाभिः सृजते गृहणते च) जैसे मकडी अपनेमेंसे जाला निकालकर ग्रहण कर लेती है इसी प्रकार मै जगत उत्पन्न कर फिर लय करलेता हू ॥४६॥




मै ही भगवान ईश्वर स्वयंज्योति सनातन हू, मै ही परमात्मा परब्रह्म हू, मुझसे परे कोई दुसरा नही है ॥४७॥




यह एक शक्ति जो सबके अन्तःकरणमें स्थित होकर अनेक प्रकारके जगतको उत्पन्न करती है यही मेरी शक्ति मुझ ब्रह्मस्वरूपमें स्थित होकर जगतकी रचना करती है और मुझही में स्थित है ॥४८॥




दूसरी शक्ति नारायण देव जगन्नाथ जगन्मय विष्णुस्वरूप होकर इस संपूर्ण जगतको स्थापित करती अर्थात पालती है ॥४९॥




तीसरी महती शक्ति है जो सम्पूर्ण जगतका संहार करती है उस शक्तिका नाम तामसी है तथा उसका रौद्ररूप है कालनाम है ॥५०॥




कोई मुझे ज्ञानसे देखते है, कोई ध्यानसे, कोई भक्तियोग और कोई कर्मयोगसे अर्थात कर्मकाण्डके आश्रयसे मेरा यजन करते है ॥५१॥




परन्तु इन सब भक्तोंमे वह मुझे सबसे अधिक प्यारा जो नित्य प्रतिज्ञासे मेरी आराधना करता है ॥५२॥




और भी जो मेरे भक्त मेरी उपासना करते है, वे भी मुझको प्राप्त होजाते है , और फिर उनका जन्म नही होता (यथा इह स्थातुमपेक्षते तस्मै सर्वेश्वर्ये ददाति यत्र कुत्रापि म्रियते देहान्ते देवः परं ब्रह्मं तारकं व्याचष्टे येनामृतीभूत्वा सोऽमृतत्वं च गच्छति) अर्थात् जो उसकी भक्ति करता है और उन्नतिको प्राप्त होनेकी इच्छा करता है, उसे भगवान सम्पूर्ण ऐश्वर्य देते है और वह ही मृतक हो देहान्तमें भगवान उसे तारक मंत्रका उपदेश करते है, जिससे उसका फिर जन्म नही होता ॥५३॥




मैने ही सम्पूर्ण प्रधान और पुरुषात्मक जगत उत्पन्न किया है मुझही मे यह सम्पूर्ण जगत स्थित है और मुझसे ही प्रेरित होता है ॥५४॥




मै इसका प्रेरक नही हू, अर्थात उपाधिसे प्रेरण करनेवाला हू ऐसा विद्वान जानते है परन्तु वास्तवमें मे प्रेरक नही, हे परमयोग साधनेवाले ब्राह्मणो! जिस प्रकारसे मै प्रेरक नही हू और जिस प्रकारसे प्रेरक हू इसको जो जानते है वह मुक्त स्वरूप है अर्थात् तत्वविचारसे जानना उचित है कि, वास्तवमें ब्रह्म कुछ नही करता ॥५५॥




मै इस संसारको जो स्वभावसे वर्तमान है सब ओरसे देखता हूं परन्तु महायोगेश्वर काल भगवान काल यह सब कुछ स्वयं करता है ॥५६॥




पंडित जन मेरे शास्त्रके अनुष्ठान करनेवालोंको योगी कहते है और यह भगवान महादेव महाप्रभु योगेश्वर कहलाते ॥५७॥




यह भगवान् महादेव महेश्वर की सम्पूर्ण प्राणियोंसे अधिक होनेसे और परेसे परे होनेसे परमेष्ठी ब्रह्मा कहलाते है अर्थात गुण कर्मोके अनुसार अनेक नाम है इनके यथार्थ जाननेसे परम पदकी प्राप्ति होती है ॥५८॥




जो इस प्रकार मुझको महायोगियोंके ईश्वर जानते है वह विकल्परहित योगको प्राप्त होता है इसमें कुछ संदेह नही ॥५९॥




मैही परमानन्द स्वरूप मे स्थित होकर सबका प्रेरक देव हू मै ही सबमे नृत्य करता हू अर्थात कर्मानुसार सब भूतोंका भ्रमण कराता हू जो इस बातको जानता है वही वेदका जाननेवाला होता है इस प्रकार तत्त्वज्ञानसे मुझे जानकर परम पदको प्राप्त होजाता है ॥६०॥




ॐ तत्सदिति श्रीपद्मपुराणे शिवगीतासूपनिषत्सु शिवराघवसंवादे ब्रह्मनिरूपणं नाम सप्तदशोध्यायः ॥१७

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