tag:blogger.com,1999:blog-64604354842294721192024-03-05T10:45:19.746+05:30गीता प्रसारगीता को जन जन तक पहुचाँने का संकल्पUnknownnoreply@blogger.comBlogger218125tag:blogger.com,1999:blog-6460435484229472119.post-81072747091332200862020-11-29T11:29:00.001+05:302020-11-29T11:31:10.322+05:30श्री हरि हर स्वरूप की कथा (वैकुंठ चतुर्दशी विशेष)<div>वेद में कहा गया है कि परमात्मा माया के द्वारा अनेक रूप वाला दिखाई देता है और सृष्टि-स्थिति और प्रलय की लीला के लिए 'ब्रह्मा, विष्णु और शिव'-इन तीन रूपों में प्रकाशित होता है । भगवान के 'हरिहर अवतार' में भगवान विष्णु और शिव का संयुक्त रूप देखने को मिलता है । 'हरिहर' शब्द दो शब्दों से मिल कर बना है । भगवान हरि (विष्णु) और हर अर्थात् भगवान शिव ।</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiRdLBcyPnalepIgjgrHPR0jNUhdXHjVrjwiLQpMNxOHVKodegnwnKSGpYaSD-1aJciAYalu_DkrIWPcC6BZqB18NMp5sjPfDBLr3GXzCCP6oec_59gutrOhl89WVlE3Jv0kIVnohhmc0J_/s1600/1606629588865662-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div>भगवान के हरिहर स्वरूप का रहस्य</div><div><br></div><div>एक बार ब्रह्माजी और विष्णुजी ने भगवान शंकर की स्तुति की जो 'शार्वस्तव' के नाम से जानी जाती है ।</div><div>भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर ब्रह्माजी और विष्णुजी से वर मांगने को कहा । ब्रह्माजी ने वरदान मांगा कि आप मेरे पुत्र हों । भगवान शंकर ने कहा-'मैं आपकी इच्छा तब पूर्ण करुंगा, जब आपको सृष्टि-रचना में सफलता नहीं मिलेगी और आपको क्रोध हो जाएगा; तब मैं उसी क्रोध से उत्पन्न होऊंगा । तब मैं प्राणरूप ग्यारहवां रुद्र कहलाऊंगा ।'</div><div>भगवान विष्णु ने अपने लिए वरदान में केवल भक्ति मांगी । इससे शंकरजी बहुत प्रसन्न हुए । शंकरजी ने अपना आधा शरीर उन्हें माना । तभी से वे 'हरिहर' रूप में पूजे जाते हैं ।</div><div><br></div><div>शंख पद्म पराहस्तौ, त्रिशूल डमरु स्तथा ।</div><div>विश्वेश्वरम् वासुदेवाय हरिहर: नमोऽस्तुते ।।</div><div><br></div><div>भगवान हरिहर का स्वरूप</div><div><br></div><div>भगवान हरिहर के दाहिने भाग में रुद्र के चिह्न हैं और वाम भाग में विष्णु के । वह दाहिने हाथ में शूल तथा ऋष्टि धारण करते हैं और बायें हाथ में गदा और चक्र । दाहिनी तरफ गौरी और वाम भाग में लक्ष्मी विराजती हैं ।</div><div><br></div><div>भगवान हरि और हर की एकता</div><div><br></div><div>पुराणों में यह कहा गया है कि शिव और विष्णु एक-दूसरे की अन्तरात्मा हैं और निरन्तर एक-दूसरे की पूजा, स्तुति व उपासना में संलग्न रहते हैं-'शिवस्य हृदये विष्णु: विष्णोश्च हृदये शिव:।' अर्थात् भगवान शंकर के हृदय में विष्णु का और भगवान विष्णु के हृदय में शंकर का बहुत अधिक स्नेह है । जैसे-</div><div><br></div><div>▪️ भगवान शिव श्रीहरि के अनन्य भक्त परम वैष्णव हैं । अत: उनके लिए कहा जाता है-'वैष्णवानां यथा शम्भु:' अर्थात्-वैष्णवों में अग्रणी शंकरजी ।</div><div><br></div><div>▪️ भगवान शिव ने श्रीहरि के चरणों से निकली गंगा को अपने जटाजूट में बांध लिया और 'गंगाधर' कहलाए । शिव तामसमूर्ति हैं और विष्णु सत्त्वमूर्ति हैं, पर एक-दूसरे का ध्यान करने से शिव श्वेत वर्ण के (कर्पूर गौर) और विष्णु श्याम वर्ण के (मेघवर्णं) हो गए ।</div><div><br></div><div>▪️ वैष्णवों का तिलक (ऊर्ध्वपुण्ड्र) त्रिशूल का रूप है और शैवों का तिलक (त्रिपुण्ड) धनुष का रूप है । अत: शिव व विष्णु में भेद नहीं मानना चाहिए। हरि और हर-दोनों की प्रकृति (वास्तविक तत्त्व) एक ही है ।</div><div><br></div><div>▪️ 'शिव सहस्त्रनाम' में भगवान शिव के 'चतुर्बाहु', 'हरि', 'विष्णु' आदि नाम मिलते हैं ।</div><div><br></div><div>▪️ 'विष्णु सहस्त्रनाम' का पाठ करने पर भगवान विष्णु के 'शर्व', 'शिव' व 'स्थाणु' आदि नामों का उल्लेख है जो भगवान शिव के नाम हैं । इसीलिए अग्निपुराण में स्वयं भगवान ने कहा है-'हम दोनों में निश्चय ही कोई भेद नहीं है, भेद देखने वाले नरकगामी होते हैं ।'</div><div><br></div><div>पुराणों में भगवान हरि और हर की एकता दर्शाने वाले अनेक उदाहरण है । यहां पाठकों को समझाने के लिए कुछ ही का वर्णन किया जा रहा है-</div><div><br></div><div>▪️ हिरण्यकशिपु दैत्य का वध करने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंह रूप धारण किया और जब वे आवेश में अति उग्र हो गए तो उन्हें भगवान शिव ने ही 'शरभावतार' लेकर शान्त किया ।</div><div><br></div><div>▪️ एक बार भक्त नरसीजी को भगवान शंकर ने दर्शन दिए और उनसे वरदान मांगने को कहा । तब नरसीजी ने कहा कि 'जो चीज आपको सबसे अधिक प्रिय लगती है, वही दीजिए ।' भगवान शंकर ने कहा-'मेरे को श्रीकृष्ण सबसे अधिक प्रिय लगते हैं, अत: मैं तुम्हें उनके ही पास ले चलता हूँ ।' ऐसा कहकर भगवान शंकर उनको गोलोक ले गए ।</div><div><br></div><div>▪️ शिव महिम्न: स्तोत्र की रचना करने वाले गंधर्व पुष्पदंतजी के अनुसार-भगवान विष्णु प्रतिदिन 'शिव सहस्त्रनाम स्तोत्र' का पाठ करते हुए सहस्त्र कमल-पुष्प से भगवान शंकर की पूजा करते थे । एक दिन शंकरजी ने परीक्षा करने के लिए एक कमल छिपा दिया । इस पर भगवान विष्णु ने अपना नेत्रकमल ही शंकरजी को अर्पित कर दिया । फिर क्या था ! भक्ति का उत्कृष्ट स्वरूप चक्र के रूप में परिणत हो गया जो भगवान विष्णु के हस्तकमल में रह कर जगत की रक्षा के लिए सदा सावधान है ।</div><div><br></div><div>▪️ रामचरितमानस के लंका काण्ड में तो विष्णुरूप भगवान श्रीराम ने शंकरजी से अपनी अभिन्नता बताते हुए स्पष्ट कह दिया है-</div><div><br></div><div>सिव द्रोही मम दास कहावा ।</div><div>सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा ।।</div><div>संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास ।</div><div>ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास ।।</div><div><br></div><div>ब्रह्मवैवर्तपुराण में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं शिवजी के प्रति अपने श्रद्धा-भाव को व्यक्त करते हुए कहते हैं-'देव ! मेरा आपसे बढ़कर कोई प्रिय नहीं है । आप मुझे अपनी आत्मा से भी अधिक प्यारे हैं ।'</div><div><br></div><div>भगवान हरि और हर के मिलन की कथा</div><div><br></div><div>एक बार वैकुण्ठ में श्रीहरि ने स्वप्न में शंकरजी को देखा तो निद्रा भंग होने पर वे लक्ष्मी सहित गरुड़ पर सवार होकर कैलाश की ओर चल दिए । इसी प्रकार कैलाश पर शंकरजी ने स्वप्न में श्रीहरि को देखा तो निद्रा भंग होने पर वे भी पार्वती सहित नन्दी पर सवार वैकुण्ठ की तरफ चल दिए । मार्ग में ही श्रीहरि और शंकरजी की भेंट हो गई । दोनों हर्षपूर्वक गले मिले । फिर श्रीहरि शंकरजी से वैकुण्ठ चलने का आग्रह करने लगे और शंकरजी श्रीविष्णुजी से कैलाश चलने का आग्रह करने लगे । बहुत देर तक दोनों एक-दूसरे से यह प्रेमानुरोध करते रहे ।</div><div><br></div><div>इतने में देवर्षि नारद वीणा बजाते, हरिगुण गाते वहां पधारे । तब पार्वतीजी ने नारदजी से इस समस्या का हल निकालने के लिए कहा । नारदजी ने हाथ जोड़कर कहा-'मैं इसका क्या हल निकाल सकता हूँ । मुझे तो हरि और हर एक ही लगते हैं; जो वैकुण्ठ है वही कैलाश है ।'</div><div><br></div><div>अंत में तय यह हुआ कि पार्वतीजी जो कह दें वही ठीक है ।</div><div><br></div><div>पार्वतीजी ने थोड़ी देर विचार करके कहा-'हे नाथ ! हे नारायण ! आपके अलौकिक प्रेम को देखकर तो मुझे यही लगता है कि जो कैलास है वही वैकुण्ठ है और जो वैकुण्ठ है वही कैलास है । इनमें केवल नाम में ही भेद है । आपकी भार्याएं भी एक हैं, दो नहीं । जो मैं हूँ वही श्रीलक्ष्मी हैं और जो श्रीलक्ष्मी हैं वहीं मैं हूँ । अब मेरी प्रार्थना है कि आप लोग दोनों ही अपने-अपने लोक को पधारिए । श्रीविष्णु यह समझें कि हम शिवरूप से वैकुण्ठ जा रहे हैं और महेश्वर यह मानें कि हम विष्णुरूप से कैलास गमन कर रहे हैं । पार्वतीजी के वचनों को सुनकर दोनों देव हर्षित होकर अपने-अपने धामों को लौट गए ।</div><div><br></div><div>माधवोमाधवावीशौ सर्वसिद्धिविधायिनौ ।</div><div>वन्दे परस्परात्मानौ परस्परनुतिप्रियौ ।।</div><div><br></div><div>अर्थात्-हम सब सिद्धियों को देने वाले, एक-दूसरे की आत्मा रूप, एक दूसरे को नमन करने वाले, सर्वसमर्थ माधव (विष्णु) और उमाधव (शिव) को साष्टांग नमन करते हैं ।</div><div id="dataFilter" class="details lang_hi"><div class="sty1"><div id="data_sly" class="data"><div class="detailsWarp"><div class="txt"><div id="moreContentData" class=""><div><br></div></div></div></div></div></div><div class="rlted_sty" id="rlted_sty"><div class="dh-list-item"><table><tbody><tr><td class="img img_hi"><br></td><td class="data lang_hi"></td></tr></tbody></table></div></div></div><div class="flt_share"><table><tbody><tr><td><a href="mailto:?subject=Dailyhunt%20News&body=%E0%A4%AD%E0%A4%97%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A8%20%E0%A4%95%E0%A5%87%20%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%B0%20%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A5%82%E0%A4%AA%20%E0%A4%95%E0%A4%BE%20%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%20%E0%A4%B9%E0%A5%88%20%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%20?%20-%20Aaradhika%20|%20DailyHunt%20Lite%0D%0A%20%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%20%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82%20%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A4%BE%20%E0%A4%97%E0%A4%AF%E0%A4%BE%20%E0%A4%B9%E0%A5%88%20%E0%A4%95%E0%A4%BF%20%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE%20%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%BE%20%E0%A4%95%E0%A5%87%20%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%20%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%95%20%E0%A4%B0%E0%A5%82%E0%A4%AA%20%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%BE%20%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%88%20%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%A4%E0%A4%BE%20%E0%A4%B9%E0%A5%88%20%E0%A4%94%E0%A4%B0%20%E0%A4%B8%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%BF-%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BF%20%E0%A4%94%E0%A4%B0%20%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B2%E0%A4%AF%20%E0%A4%95%E0%A5%80%20%E0%A4%B2%E0%A5%80%E0%A4%B2%E0%A4%BE%20%E0%A4%95%E0%A5%87%20%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%8F%20%27%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE,%20%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A5%81%20%E0%A4%94%E0%A4%B0%20%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%B5%27-%E0%A4%87%E0%A4%A8%20%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%A8%20%E0%A4%B0%E0%A5%82%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%82%20%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82%20%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%A4%20%E0%A4%B9%E0%A5%8B%E0%A4%A4%E0%A4%BE%20%E0%A4%B9%E0%A5%88%20%E0%A5%A4%20%E0%A4%AD%E0%A4%97%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A8%20%E0%A4%95%E0%A5%87%20%27%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%B0%20%E0%A4%85%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B0%27%20%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82%20%E0%A4%AD%E0%A4%97%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A8%20%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A5%81%20%E0%A4%94%E0%A4%B0%20%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%B5%20%E0%A4%95%E0%A4%BE%20%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AF%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%20%E0%A4%B0%E0%A5%82%E0%A4%AA%20%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%96%E0%A4%A8%E0%A5%87%20%E0%A4%95%E0%A5%8B%20%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A4%A4%E0%A4%BE%20%E0%A4%B9%E0%A5%88%20%E0%A5%A4%20%27%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%B0%27%20%E0%A4%B6%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%A6%20%E0%A4%A6%E0%A5%8B%20%E0%A4%B6%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8B%E0%A4%82%20%E0%A4%B8%E0%A5%87%20%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B2%20%E0%A4%95%E0%A4%B0%20%E0%A4%AC%E0%A4%A8%E0%A4%BE%20%E0%A4%B9%E0%A5%88%20%E0%A5%A4%20%E0%A4%AD%E0%A4%97%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A8%20%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A4%BF%20(%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A5%81)%20%E0%A4%94%E0%A4%B0%20%E0%A4%B9%E0%A4%B0%20%E0%A4%85%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A5%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%8D%20%E0%A4%AD%E0%A4%97%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A8%20%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%B5%20%E0%A5%A4%20%20%20%E0%A4%AD%E0%A4%97%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A8%20%E0%A4%95%E0%A5%87%20%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%B0%20%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A5%82%E0%A4%AA%20%E0%A4%95%E0%A4%BE%20%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%20%20%E0%A4%8F%E0%A4%95%20%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B0%20%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A5%80%20%E0%A4%94%E0%A4%B0%20%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A5%81%E0%A4%9C%E0%A5%80%20%E0%A4%A8%E0%A5%87%20%E0%A4%AD%E0%A4%97%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A8%20%E0%A4%B6%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%B0%20%E0%A4%95%E0%A5%80%20%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%A4%E0%A4%BF%20%E0%A4%95%E0%A5%80%20%E0%A4%9C%E0%A5%8B%20%27%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5%27%20%E0%A4%95%E0%A5%87%20%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AE%20%E0%A4%B8%E0%A5%87%20%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80%20%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%80%20%E0%A4%B9%E0%A5%88%20%E0%A5%A4%0D%0ARead%20More%0D%0Ahttp%3A%2F%2Fdhunt.in%2FahCRP%3Fss%3Daem%26s%3Dwa" class="icn_email rmX"></a></td></tr></tbody></table></div>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6460435484229472119.post-57050500208052701372020-08-12T14:12:00.000+05:302021-01-14T10:49:24.149+05:30गीता प्रसार पर आपका सादर अभिनन्दन है |<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6460435484229472119.post-62813500929742559372020-08-12T14:11:00.000+05:302020-08-12T14:11:18.208+05:30जन्माष्टमी (भाद्रपद कृष्ण अष्टमी)<p>जन्माष्टमी को भगवान श्री कृष्ण जी के जन्म उत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस दिन भगवान श्री कृष्ण के बाल रूप से पूजा का विधान है। लेकिन भक्तों का अपने भावों के अनुरूप किसी भी रुप में श्री कृष्ण की आराधना की जा सकती है। </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5ORXeVEG2uBmEcDYfSYlFt0PWnyBklODHBhKiHefDJbJZwFzPEYfQZHsIkTqcySqCnvJPR2bKpMXfYKc724d_lfuUPsCmMsczQt94fCVARW5flyRI9pajVtOR9G6TbuqSUOHfrjB-WdsY/s1287/%25E0%25A4%259C%25E0%25A4%25A8%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25AE%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25B7%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%259F%25E0%25A4%25AE%25E0%25A5%2580.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1287" data-original-width="1080" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5ORXeVEG2uBmEcDYfSYlFt0PWnyBklODHBhKiHefDJbJZwFzPEYfQZHsIkTqcySqCnvJPR2bKpMXfYKc724d_lfuUPsCmMsczQt94fCVARW5flyRI9pajVtOR9G6TbuqSUOHfrjB-WdsY/s640/%25E0%25A4%259C%25E0%25A4%25A8%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25AE%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25B7%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%259F%25E0%25A4%25AE%25E0%25A5%2580.jpg" /></a></div><p><br /></p><p><span style="font-size: x-large;"><b>जन्माष्टमी की सरल पूजन विधि -</b></span></p><p><br /></p><p>- चौकी पर साफ कपड़ा बिछा लीजिए ।</p><p><br /></p><p>- भगवान कृष्ण की मूर्ति चौकी पर एक पात्र में रखिए।</p><p><br /></p><p>- अब दीपक जलाएं और साथ ही धूपबत्ती भी जला लीजिए।</p><p><br /></p><p>- भगवान कृष्ण से प्रार्थना करें कि 'हे भगवान कृष्ण ! कृपया पधारिए और पूजा ग्रहण कीजिए।</p><p><br /></p><p>- श्री कृष्ण को पंचामृत से स्नान कराएं।</p><p><br /></p><p>- फिर शुद्ध जल से स्नान कराएं ।</p><p><br /></p><p>- इसके बाद अब श्री कृष्ण को वस्त्र पहनाएं और श्रृंगार कीजिए।</p><p><br /></p><p>- भगवान कृष्ण को दीप दिखाएं. इसके बाद धूप दिखाएं।</p><p><br /></p><p>- फिर अष्टगंध चन्दन या रोली का तिलक लगाएं और साथ ही अक्षत (चावल) भी तिलक पर लगाएं। फूल हो तो फूल चढ़ाएं ।</p><p><br /></p><p>- माखन मिश्री और अन्य भोग सामग्री अर्पण कीजिए और तुलसी का पत्ता विशेष रूप से अर्पण कीजिए।</p><p><br /></p><p>- साथ ही पीने के लिए निर्मल शीतल जल रखें।</p><p><br /></p><p>- तत्पश्चात भगवान श्री कृष्ण का इस प्रकार ध्यान कीजिए</p><p>श्री कृष्ण बच्चे के रूप में पीपल के पत्ते पर लेटे हैं. उनके शरीर में अनंत ब्रह्माण्ड हैं और वे अंगूठा चूस रहे हैं. इसके साथ ही श्री कृष्ण के भक्ति मुक्ति प्रदाता स्वरूप का नाम अथवा मंत्र सहित बार बार चिंतन कीजिए. कृष्ण का अर्थ है वह जो परमानंद या पूर्ण मोक्ष की ओर आकर्षित करता है, वही कृष्ण है। मंत्र के रूप में आप ऊॅं नमो भगवते वासुदेवाय का भी जप कर सकते हैं।</p><p><br /></p><p>- इसके बाद आरती करें ।</p><p><br /></p><p>- इसके बाद विसर्जन के लिए हाथ में फूल और चावल लेकर चौकी पर छोड़ें और कहें : हे भगवान् कृष्ण! पूजा में पधारने के लिए धन्यवाद. कृपया मेरी पूजा और जप ग्रहण कीजिए और पुनः अपने दिव्य धाम को पधारिए ।</p><p><br /></p><p>- साष्टांग प्रणाम कर क्षमा याचना करें और यदि कोई अभीष्ट हो तो वह परमात्मा के समक्ष निवेदन करें ।</p><p><br /></p><p>*भगवान बाल गोपाल इस पूजन से प्रसन्न होकर आपकी सभी शुभ मनोकामनाएं पूर्ण करें ।*</p>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6460435484229472119.post-1311685979282880282019-09-28T20:14:00.000+05:302019-09-28T20:14:35.051+05:30नवरात्रि <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
नवरात्रि एक हिंदू पर्व है। नवरात्रि संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ होता है नौ रातें । यह पर्व साल में चार बार आता है।चैत्र,आषाढ,अश्विन,पोषप्रतिपदा से नवमी तक मनाया जाता है। नवरात्रि के नौ रातो में तीन देवियों - महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वतीया सरस्वतीकि तथा दुर्गा के नौ स्वरुपों की पूजा होती है जिन्हे नवदुर्गा कहते हैं । नौ देवियाँ है :-</div>
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<a href="http://gitaprasar.blogspot.com/2012/10/blog-post_1345.html">श्री शैलपुत्री</a></div>
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<a href="http://gitaprasar.blogspot.com/2012/10/blog-post_14.html">श्री ब्रह्मचारिणी</a></div>
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<a href="http://gitaprasar.blogspot.com/2012/10/blog-post_6375.html">श्री चंद्रघंटा</a></div>
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<a href="http://gitaprasar.blogspot.com/2012/10/blog-post_9530.html">श्री कुष्मांडा</a></div>
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<a href="http://gitaprasar.blogspot.com/2012/10/blog-post_644.html">श्री स्कंदमाता</a></div>
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<a href="http://gitaprasar.blogspot.com/2012/10/blog-post_207.html">श्री कात्यायनी</a></div>
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<a href="http://gitaprasar.blogspot.com/2012/10/blog-post_4593.html">श्री कालरात्रि</a></div>
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<a href="http://gitaprasar.blogspot.com/2012/10/blog-post_6838.html">श्री महागौरी</a></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="http://gitaprasar.blogspot.com/2012/10/blog-post_7751.html">श्री सिद्धिदात्री</a></div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
शक्ति की उपासना का पर्व शारदेय नवरात्र प्रतिपदा से नवमी तक निश्चित नौ तिथि, नौ नक्षत्र, नौ शक्तियों की नवधा भक्ति के साथ सनातन काल से मनाया जा रहा है। सर्वप्रथम श्रीरामचंद्रजी ने इस शारदीय नवरात्रि पूजा का प्रारंभ समुद्र तट पर किया था और उसके बाद दसवें दिन लंका विजय के लिए प्रस्थान किया और विजय प्राप्त की । तब से असत्य, अधर्म पर सत्य, धर्म की जीत का पर्व दशहरा मनाया जाने लगा।</div>
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<br /></div>
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आदिशक्ति के हर रूप की नवरात्र के नौ दिनों में क्रमशः अलग-अलग पूजा की जाती है। माँ दुर्गा की नौवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री है। ये सभी प्रकार की सिद्धियाँ देने वाली हैं। इनका वाहन सिंह है और कमल पुष्प पर ही आसीन होती हैं । नवरात्रि के नौवें दिन इनकी उपासना की जाती है।</div>
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नवदुर्गा और दस महाविधाओं में काली ही प्रथम प्रमुख हैं। भगवान शिव की शक्तियों में उग्र और सौम्य, दो रूपों में अनेक रूप धारण करने वाली दस महाविधाएँ अनंत सिद्धियाँ प्रदान करने में समर्थ हैं। दसवें स्थान पर कमला वैष्णवी शक्ति हैं, जो प्राकृतिक संपत्तियों की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी हैं। देवता, मानव, दानव सभी इनकी कृपा के बिना पंगु हैं, इसलिए आगम-निगम दोनों में इनकी उपासना समान रूप से वर्णित है। सभी देवता, राक्षस, मनुष्य, गंधर्व इनकी कृपा-प्रसाद के लिए लालायित रहते हैं।</div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<span style="font-size: large;">प्रमुख कथा </span></div>
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लंका-युद्ध में ब्रह्माजी ने श्रीराम से रावण वध के लिए चंडी देवी का पूजन कर देवी को प्रसन्न करने को कहा और बताए अनुसार चंडी पूजन और हवन हेतु दुर्लभ एक सौ आठ नीलकमल की व्यवस्था की गई। वहीं दूसरी ओर रावण ने भी अमरता के लोभ में विजय कामना से चंडी पाठ प्रारंभ किया। यह बात इंद्र देव ने पवन देव के माध्यम से श्रीराम के पास पहुँचाई और परामर्श दिया कि चंडी पाठ यथासभंव पूर्ण होने दिया जाए। इधर हवन सामग्री में पूजा स्थल से एक नीलकमल रावण की मायावी शक्ति से गायब हो गया और राम का संकल्प टूटता-सा नजर आने लगा। भय इस बात का था कि देवी माँ रुष्ट न हो जाएँ। दुर्लभ नीलकमल की व्यवस्था तत्काल असंभव थी, तब भगवान राम को सहज ही स्मरण हुआ कि मुझे लोग 'कमलनयन नवकंच लोचन' कहते हैं, तो क्यों न संकल्प पूर्ति हेतु एक नेत्र अर्पित कर दिया जाए और प्रभु राम जैसे ही तूणीर से एक बाण निकालकर अपना नेत्र निकालने के लिए तैयार हुए, तब देवी ने प्रकट हो, हाथ पकड़कर कहा- राम मैं प्रसन्न हूँ और विजयश्री का आशीर्वाद दिया। वहीं रावण के चंडी पाठ में यज्ञ कर रहे ब्राह्मणों की सेवा में ब्राह्मण बालक का रूप धर कर हनुमानजी सेवा में जुट गए। निःस्वार्थ सेवा देखकर ब्राह्मणों ने हनुमानजी से वर माँगने को कहा। इस पर हनुमान ने विनम्रतापूर्वक कहा- प्रभु, आप प्रसन्न हैं तो जिस मंत्र से यज्ञ कर रहे हैं, उसका एक अक्षर मेरे कहने से बदल दीजिए। ब्राह्मण इस रहस्य को समझ नहीं सके और तथास्तु कह दिया। मंत्र में जयादेवी... भूर्तिहरिणी में 'ह' के स्थान पर 'क' उच्चारित करें, यही मेरी इच्छा है। भूर्तिहरिणी यानी कि प्राणियों की पीड़ा हरने वाली और 'करिणी' का अर्थ हो गया प्राणियों को पीड़ित करने वाली, जिससे देवी रुष्ट हो गईं और रावण का सर्वनाश करवा दिया। हनुमानजी महाराज ने श्लोक में 'ह' की जगह 'क' करवाकर रावण के यज्ञ की दिशा ही बदल दी। </div>
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<br /></div>
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<span style="font-size: large;">अन्य कथाएं </span></div>
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<br /></div>
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इस पर्व से जुड़ी एक अन्य कथा अनुसार देवी दुर्गा ने एक भैंस रूपी असुर अर्थात महिषासुर का वध किया था। पौराणिक कथाओं के अनुसार महिषासुर के एकाग्र ध्यान से बाध्य होकर देवताओं ने उसे अजय होने का वरदान दे दिया। उसको वरदान देने के बाद देवताओं को चिंता हुई कि वह अब अपनी शक्ति का गलत प्रयोग करेगा। और प्रत्याशित प्रतिफल स्वरूप महिषासुर ने नरक का विस्तार स्वर्ग के द्वार तक कर दिया और उसके इस कृत्य को देख देवता विस्मय की स्थिति में आ गए। महिषासुर ने सूर्य, इन्द्र, अग्नि, वायु, चन्द्रमा, यम, वरुण और अन्य देवताओं के सभी अधिकार छीन लिए हैं और स्वयं स्वर्गलोक का मालिक बन बैठा है। देवताओं को महिषासुर के प्रकोप से पृथ्वी पर विचरण करना पड़ रहा है। तब महिषासुर के इस दुस्साहस से क्रोधित होकर देवताओं ने देवी दुर्गा की रचना की। ऐसा माना जाता है कि देवी दुर्गा के निर्माण में सारे देवताओं का एक समान बल लगाया गया था। महिषासुर का नाश करने के लिए सभी देवताओं ने अपने अपने अस्त्र देवी दुर्गा को दिए थे और कहा जाता है कि इन देवताओं के सम्मिलित प्रयास से देवी दुर्गा और बलवान हो गईं थी। इन नौ दिन देवी-महिषासुर संग्राम हुआ और अन्ततः महिषासुर-वध कर महिषासुर मर्दिनी कहलायीं। </div>
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<span style="font-size: large;">पूजन विधि </span></div>
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<br /></div>
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चौमासे में जो कार्य स्थगित किए गए होते हैं, उनके आरंभ के लिए साधन इसी दिन से जुटाए जाते हैं। क्षत्रियों का यह बहुत बड़ा पर्व है। इस दिन ब्राह्मण सरस्वती-पूजन तथा क्षत्रिय शस्त्र-पूजन आरंभ करते हैं। विजयादशमी या दशहरा एक राष्ट्रीय पर्व है। अर्थात आश्विन शुक्ल दशमी को सायंकाल तारा उदय होने के समय 'विजयकाल' रहता है।[क] यह सभी कार्यों को सिद्ध करता है। आश्विन शुक्ल दशमी पूर्वविद्धा निषिद्ध, परविद्धा शुद्ध और श्रवण नक्षत्रयुक्त सूर्योदयव्यापिनी सर्वश्रेष्ठ होती है। अपराह्न काल, श्रवण नक्षत्र तथा दशमी का प्रारंभ विजय यात्रा का मुहूर्त माना गया है। दुर्गा-विसर्जन, अपराजिता पूजन, विजय-प्रयाग, शमी पूजन तथा नवरात्र-पारण इस पर्व के महान कर्म हैं। इस दिन संध्या के समय नीलकंठ पक्षी का दर्शन शुभ माना जाता है। क्षत्रिय/राजपूतों इस दिन प्रातः स्नानादि नित्य कर्म से निवृत्त होकर संकल्प मंत्र लेते हैं।[ख] इसके पश्चात देवताओं, गुरुजन, अस्त्र-शस्त्र, अश्व आदि के यथाविधि पूजन की परंपरा है।</div>
<br />
<br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">साधना </span><br />
<br />
हमें चाहिए कि अपने मन, वचन, कर्म एवं काया को विहित विधि-विधान के अनुसार पूर्णतः परिशुद्ध एवं पवित्र करके माँ चंद्रघंटा के शरणागत होकर उनकी उपासना-आराधना में तत्पर हों। उनकी उपासना से हम समस्त सांसारिक कष्टों से विमुक्त होकर सहज ही परमपद के अधिकारी बन सकते हैं। हमें निरंतर उनके पवित्र विग्रह को ध्यान में रखते हुए साधना की ओर अग्रसर होने का प्रयत्न करना चाहिए। उनका ध्यान हमारे इहलोक और परलोक दोनों के लिए परम कल्याणकारी और सद्गति देने वाला है। प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक सरल और स्पष्ट है। माँ जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में तृतीय दिन इसका जाप करना चाहिए। <br />
<br />
<span style="font-size: large;">महिमा </span><br />
<br />
माँ को जो सच्चे मन से याद करता है उसके रोग, शोक, संताप, भय आदि सर्वथा विनष्ट हो जाते हैं। जन्म-जन्मांतर के पापों को विनष्ट करने के लिए माँ की शरणागत होकर उनकी पूजा-उपासना के लिए तत्पर होना चाहिए। </div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6460435484229472119.post-72610626746744678172019-09-26T14:21:00.000+05:302019-09-26T14:21:42.517+05:30 श्राद्ध विशेष <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<table frame="box"><tbody>
<tr><th></th><td><script src="https://feeds.feedburner.com/blogspot/VGKrY?format=sigpro" type="text/javascript"></script><noscript><p>
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</td></tr>
</tbody></table>
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गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6460435484229472119.post-5979738951569874132017-07-04T08:34:00.000+05:302020-11-25T09:00:19.907+05:30देवशयनी एकादशी ( आषाढ़ शुक्ल एकादशी )<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर २६ हो जाती है। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्षकी एकादशी को ही देवशयनी एकादशी कहा जाता है। कहीं-कहीं इस तिथि को 'पद्मनाभा' भी कहते हैं। सूर्य के मिथुन राशि में आने पर ये एकादशी आती है। इसी दिन से चातुर्मास का आरंभ माना जाता है। इस दिन से भगवान श्री हरि विष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं और फिर लगभग चार माह बाद तुला राशि में सूर्य के जाने पर उन्हें उठाया जाता है। उस दिन को देवोत्थानी एकादशी कहा जाता है। इस बीच के अंतराल को ही चातुर्मास कहा गया है।<br>
<a name="more"></a></div>
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<br></div>
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<span style="color: #0b5394; font-size: large;">पौराणिक संदर्भ</span></div>
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<br></div>
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पुराणों में वर्णन आता है कि भगवान विष्णु इस दिन से चार मासपर्यंत (चातुर्मास) पाताल में राजा बलि के द्वार पर निवास करके कार्तिक शुक्ल एकादशी को लौटते हैं। इसी प्रयोजन से इस दिन को 'देवशयनी' तथा कार्तिकशुक्ल एकादशी को प्रबोधिनी एकादशीकहते हैं। इस काल में यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह, दीक्षाग्रहण, यज्ञ, ग्रहप्रवेश, गोदान, प्रतिष्ठा एवं जितने भी शुभ कर्म है, वे सभी त्याज्य होते हैं। भविष्य पुराण, पद्म पुराण तथा श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार हरिशयन को योगनिद्रा कहा गया है।<br>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgkj46zR7oVHQShmt7F59G8vRk8RmiBtDQlWQ8uUhEqH21WjHiaNW1lC1yWXO2VwwRdPKHTrd3T1pFZX_lXYzGjK0rC9W_8X0Cv9_8HnOumAWdTEvX97TAlcsvPox-9HRMk_rQtrgMMzigS/s1600/awakeningthesoulofworld.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="559" data-original-width="945" height="236" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgkj46zR7oVHQShmt7F59G8vRk8RmiBtDQlWQ8uUhEqH21WjHiaNW1lC1yWXO2VwwRdPKHTrd3T1pFZX_lXYzGjK0rC9W_8X0Cv9_8HnOumAWdTEvX97TAlcsvPox-9HRMk_rQtrgMMzigS/s400/awakeningthesoulofworld.jpg" width="400"></a></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
</div>
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संस्कृत में धार्मिक साहित्यानुसार हरि शब्द सूर्य, चन्द्रमा, वायु, विष्णु आदि अनेक अर्थो में प्रयुक्त है। हरिशयन का तात्पर्य इन चार माह में बादल और वर्षा के कारण सूर्य-चन्द्रमा का तेज क्षीण हो जाना उनके शयन का ही द्योतक होता है। इस समय में पित्त स्वरूप अग्नि की गति शांत हो जाने के कारण शरीरगत शक्ति क्षीण या सो जाती है। आधुनिक युग में वैज्ञानिकों ने भी खोजा है कि कि चातुर्मास्य में (मुख्यतः वर्षा ऋतु में) विविध प्रकार के कीटाणु अर्थात सूक्ष्म रोग जंतु उत्पन्न हो जाते हैं, जल की बहुलता और सूर्य-तेज का भूमि पर अति अल्प प्राप्त होना ही इनका कारण है।</div>
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धार्मिक शास्त्रों के अनुसार आषाढ़ शुक्ल पक्ष में एकादशी तिथि को शंखासुर दैत्य मारा गया। अत: उसी दिन से आरम्भ करके भगवान चार मास तक क्षीर समुद्र में शयन करते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं। पुराण के अनुसार यह भी कहा गया है कि भगवान हरि ने वामन रूप में दैत्य बलि के यज्ञ में तीन पग दान के रूप में मांगे। भगवान ने पहले पग में संपूर्ण पृथ्वी, आकाश और सभी दिशाओं को ढक लिया। अगले पग में सम्पूर्ण स्वर्ग लोक ले लिया। तीसरे पग में बलि ने अपने आप को समर्पित करते हुए सिर पर पग रखने को कहा। इस प्रकार के दान से भगवान ने प्रसन्न होकर पाताल लोक का अधिपति बना दिया और कहा वर मांगो। बलि ने वर मांगते हुए कहा कि भगवान आप मेरे महल में नित्य रहें। बलि के बंधन में बंधा देख उनकी भार्या लक्ष्मी ने बलि को भाई बना लिया और भगवान से बलि को वचन से मुक्त करने का अनुरोध किया। तब इसी दिन से भगवान विष्णु जी द्वारा वर का पालन करते हुए तीनों देवता ४-४ माह सुतल में निवास करते हैं। विष्णु देवशयनी एकादशी से देवउठानी एकादशी तक, शिवजीमहाशिवरात्रि तक और ब्रह्मा जी शिवरात्रि से देवशयनी एकादशी तक निवास करते हैं।</div>
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<span style="color: #0b5394; font-size: large;">विधि</span></div>
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देवशयनी एकादशी व्रतविधि एकादशी को प्रातःकाल उठें। इसके बाद घर की साफ-सफाई तथा नित्य कर्म से निवृत्त हो जाएँ। स्नान कर पवित्र जल का घर में छिड़काव करें। घर के पूजन स्थल अथवा किसी भी पवित्र स्थल पर प्रभु श्री हरि विष्णु की सोने, चाँदी, तांबे अथवा पीतल की मूर्ति की स्थापना करें। तत्पश्चात उसका षोड्शोपचार सहित पूजन करें। इसके बाद भगवान विष्णु को पीतांबर आदि से विभूषित करें। तत्पश्चात व्रत कथा सुननी चाहिए। इसके बाद आरती कर प्रसाद वितरण करें। अंत में सफेद चादर से ढँके गद्दे-तकिए वाले पलंग पर श्री विष्णु को शयन कराना चाहिए। व्यक्ति को इन चार महीनों के लिए अपनी रुचि अथवा अभीष्ट के अनुसार नित्य व्यवहार के पदार्थों का त्याग और ग्रहण करें।ग्रहण करें</div>
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<div style="text-align: justify;">
देह शुद्धि या सुंदरता के लिए परिमित प्रमाण के पंचगव्य का। वंश वृद्धि के लिए नियमित दूध का। सर्वपापक्षयपूर्वक सकल पुण्य फल प्राप्त होने के लिए एकमुक्त, नक्तव्रत, अयाचित भोजन या सर्वथा उपवास करने का व्रत ग्रहण करें।</div>
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<span style="color: #0b5394; font-size: large;">त्यागें</span></div>
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आज के दिन किसका त्याग करें- मधुर स्वर के लिए गुड़ का। दीर्घायु अथवा पुत्र-पौत्रादि की प्राप्ति के लिए तेल का। शत्रुनाशादि के लिए कड़वे तेल का। सौभाग्य के लिए मीठे तेल का। स्वर्ग प्राप्ति के लिए पुष्पादि भोगों का। प्रभु शयन के दिनों में सभी प्रकार के मांगलिक कार्य जहाँ तक हो सके न करें। पलंग पर सोना, भार्या का संग करना, झूठ बोलना, मांस, शहद और दूसरे का दिया दही-भात आदि का भोजन करना, मूली, पटोल एवं बैंगन आदि का भी त्याग कर देना चाहिए।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #0b5394; font-size: large;">कथा</span></div>
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<br></div>
<div style="text-align: justify;">
एक बार देवऋषि नारदजी ने ब्रह्माजी से इस एकादशी के विषय में जानने की उत्सुकता प्रकट की, तब ब्रह्माजी ने उन्हें बताया- सतयुग में मांधाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज्य करते थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। किंतु भविष्य में क्या हो जाए, यह कोई नहीं जानता। अतः वे भी इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनके राज्य में शीघ्र ही भयंकर अकाल पड़ने वाला है।</div>
<div style="text-align: justify;">
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<div style="text-align: justify;">
उनके राज्य में पूरे तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा। इस दुर्भिक्ष (अकाल) से चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। धर्म पक्ष के यज्ञ, हवन, पिंडदान, कथा-व्रत आदि में कमी हो गई। जब मुसीबत पड़ी हो तो धार्मिक कार्यों में प्राणी की रुचि कहाँ रह जाती है। प्रजा ने राजा के पास जाकर अपनी वेदना की दुहाई दी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
राजा तो इस स्थिति को लेकर पहले से ही दुःखी थे। वे सोचने लगे कि आखिर मैंने ऐसा कौन- सा पाप-कर्म किया है, जिसका दंड मुझे इस रूप में मिल रहा है? फिर इस कष्ट से मुक्ति पाने का कोई साधन करने के उद्देश्य से राजा सेना को लेकर जंगल की ओर चल दिए। वहाँ विचरण करते-करते एक दिन वे ब्रह्माजी के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुँचे और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। ऋषिवर ने आशीर्वचनोपरांत कुशल क्षेम पूछा। फिर जंगल में विचरने व अपने आश्रम में आने का प्रयोजन जानना चाहा।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
तब राजा ने हाथ जोड़कर कहा- 'महात्मन्! सभी प्रकार से धर्म का पालन करता हुआ भी मैं अपने राज्य में दुर्भिक्ष का दृश्य देख रहा हूँ। आखिर किस कारण से ऐसा हो रहा है, कृपया इसका समाधान करें।' यह सुनकर महर्षि अंगिरा ने कहा- 'हे राजन! सब युगों से उत्तम यह सतयुग है। इसमें छोटे से पाप का भी बड़ा भयंकर दंड मिलता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
इसमें धर्म अपने चारों चरणों में व्याप्त रहता है। ब्राह्मण के अतिरिक्त किसी अन्य जाति को तप करने का अधिकार नहीं है जबकि आपके राज्य में एक शूद्र तपस्या कर रहा है। यही कारण है कि आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है। जब तक वह काल को प्राप्त नहीं होगा, तब तक यह दुर्भिक्ष शांत नहीं होगा। दुर्भिक्ष की शांति उसे मारने से ही संभव है।'</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
किंतु राजा का हृदय एक नरपराधशूद्र तपस्वी का शमन करने को तैयार नहीं हुआ। उन्होंने कहा- 'हे देव मैं उस निरपराध को मार दूँ, यह बात मेरा मन स्वीकार नहीं कर रहा है। कृपा करके आप कोई और उपाय बताएँ।' महर्षि अंगिरा ने बताया- 'आषाढ़ माह के शुक्लपक्ष की एकादशी का व्रत करें। इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी।'</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
राजा अपने राज्य की राजधानी लौट आए और चारों वर्णों सहित पद्मा एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलधार वर्षा हुई और पूरा राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #0b5394; font-size: large;">व्रतफल</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
ब्रह्म वैवर्त पुराण में देवशयनी एकादशी के विशेष माहात्म्य का वर्णन किया गया है। इस व्रत से प्राणी की समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। व्रती के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। यदि व्रती चातुर्मास का पालन विधिपूर्वक करे तो महाफल प्राप्त होता है।</div>
</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6460435484229472119.post-70363682538945190192017-06-20T10:57:00.000+05:302017-06-20T10:57:36.841+05:30योगिनी एकादशी <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
आषाढ मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन योगिनी एकादशी व्रत का विधान है. इस शुभ दिन के उपलक्ष्य पर विष्णु भगवान जी की पूजा उपासना की जाती है. इस एकादशी के दिन पीपल के पेड की पूजा करने का भी विशेष महत्व होता है.</div>
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEigvXbTWUKvGmvSIt3wBWVwXBgCmMPfB_4Bqx8gyfEk6qqautnx6x9CSk9TrcldgpveHMpqp5Bt_JbhSqbncZOTs9lSWUD5aouA8MERK65qg1AKhlXK26DIeAHOTLH_pWUVh5EzVXQJic1f/s1600/Yogini-Ekadashi-Importance.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="356" data-original-width="640" height="222" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEigvXbTWUKvGmvSIt3wBWVwXBgCmMPfB_4Bqx8gyfEk6qqautnx6x9CSk9TrcldgpveHMpqp5Bt_JbhSqbncZOTs9lSWUD5aouA8MERK65qg1AKhlXK26DIeAHOTLH_pWUVh5EzVXQJic1f/s400/Yogini-Ekadashi-Importance.jpg" width="400" /></a></div>
<br /></div>
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<span style="font-size: large;">योगिनी एकादशी व्रत पूजा विधि |</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इस एकादशी का महत्व तीनों लोकों में प्रसिद्ध है. इस व्रत को करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं तथा मुक्ति प्राप्त होती है. योगिनी एकादशी व्रत करने से पहले की रात्रि में ही व्रत एक नियम शुरु हो जाते हैं. यह व्रत दशमी तिथि कि रात्रि से शुरु होकर द्वादशी तिथि के प्रात:काल में दान कार्यो के बाद समाप्त होता है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
एकादशी तिथि के दिन प्रात: स्नान आदि कार्यो के बाद, व्रत का संकल्प लिया जाता है. स्नान करने के लिये मिट्टी का प्रयोग करना शुभ रहता है. इसके अतिरिक्त स्नान के लिये तिल के लेप का प्रयोग भी किया जा सकता है. स्नान करने के बाद कुम्भ स्थापना की जाती है, कुम्भ के ऊपर श्री विष्णु जी कि प्रतिमा रख कर पूजा की जाती है. और धूप, दीप से पूजन किया जाता है. व्रत की रात्रि में जागरण करना चाहिए. दशमी तिथि की रात्रि से ही व्रती को तामसिक भोजन का त्याग कर देना चाहिए और इसके अतिरिक्त व्रत के दिन नमक युक्त भोजन भी नहीं किया जाता है. इसलिये दशमी तिथि की रात्रि में नमक का सेवन नहीं करना चाहिए.</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">योगिनी एकादशी व्रत कथा | </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वसुदेव नंदन त्रय ताप विनाशक गोपिका बल्लभ भगवान श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों में विराजमान कुंतीनन्दन धर्मराज युधिष्ठिर ने सादर पूछा- ‘वासुदेव ! आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष में जो एकादशी होती है उसका क्या नाम है? कृपया उसका वर्णन कीजिए।’ भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - नृपश्रेष्ठ ! आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम‘ ‘योगिनी’ है। इसके व्रत से दौहिक-दैविक-भौतिक तीनों प्रकार के ताप नष्ट हो जाते हैं। यह एकादशी इस लोक में संपूर्ण ऐश्वर्य भोग एवं परलोक में मुक्ति दायिनी है। संसारारण्य में भटकने वाले प्राणियों के उद्धार का यह सर्वश्रेष्ठ साधन है। संसार सागर से पार जाने के लिए यह सनातन नौका है। यह एकादशी तीनों लोकों में प्रसिद्ध है। मैं पुराणों में वर्णित कथा आपको सुनाता हूं, ध्यानपूर्वक सुनें।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अलकापुरी के राजाधिराज कुबेर सदा भगवान शिव की भक्ति में तत्पर रहनेवाले हैं । उनका ‘हेममाली’ नामक एक यक्ष सेवक था, जो पूजा के लिए फूल लाया करता था । हेममाली की पत्नी का नाम ‘विशालाक्षी’ था । वह यक्ष कामपाश में आबद्ध होकर सदा अपनी पत्नी में आसक्त रहता था । एक दिन हेममाली मानसरोवर से फूल लाकर अपने घर में ही ठहर गया और पत्नी के प्रेमपाश में खोया रह गया, अत: कुबेर के भवन में न जा सका । इधर कुबेर मन्दिर में बैठकर शिव का पूजन कर रहे थे । उन्होंने दोपहर तक फूल आने की प्रतीक्षा की । जब पूजा का समय व्यतीत हो गया तो यक्षराज ने कुपित होकर सेवकों से कहा : ‘यक्षों ! दुरात्मा हेममाली क्यों नहीं आ रहा है ?’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
यक्षों ने कहा: राजन् ! वह तो पत्नी की कामना में आसक्त हो घर में ही रमण कर रहा है । यह सुनकर कुबेर क्रोध से भर गये और तुरन्त ही हेममाली को बुलवाया । वह आकर कुबेर के सामने खड़ा हो गया । उसे देखकर कुबेर बोले : ‘ओ पापी ! अरे दुष्ट ! ओ दुराचारी ! तूने भगवान की अवहेलना की है, अत: कोढ़ से युक्त और अपनी उस प्रियतमा से वियुक्त होकर इस स्थान से भ्रष्ट होकर अन्यत्र चला जा ।’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
कुबेर के ऐसा कहने पर वह उस स्थान से नीचे गिर गया । कोढ़ से सारा शरीर पीड़ित था परन्तु शिव पूजा के प्रभाव से उसकी स्मरणशक्ति लुप्त नहीं हुई । तदनन्तर वह पर्वतों में श्रेष्ठ मेरुगिरि के शिखर पर गया । वहाँ पर मुनिवर मार्कण्डेयजी का उसे दर्शन हुआ । पापकर्मा यक्ष ने मुनि के चरणों में प्रणाम किया । मुनिवर मार्कण्डेय ने उसे भय से काँपते देख कहा : ‘तुझे कोढ़ के रोग ने कैसे दबा लिया ?’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
यक्ष बोला : मुने ! मैं कुबेर का अनुचर हेममाली हूँ । मैं प्रतिदिन मानसरोवर से फूल लाकर शिव पूजा के समय कुबेर को दिया करता था । एक दिन पत्नी सहवास के सुख में फँस जाने के कारण मुझे समय का ज्ञान ही नहीं रहा, अत: राजाधिराज कुबेर ने कुपित होकर मुझे शाप दे दिया, जिससे मैं कोढ़ से आक्रान्त होकर अपनी प्रियतमा से बिछुड़ गया । मुनिश्रेष्ठ ! संतों का चित्त स्वभावत: परोपकार में लगा रहता है, यह जानकर मुझ अपराधी को कर्त्तव्य का उपदेश दीजिये ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मार्कण्डेयजी ने कहा: तुमने यहाँ सच्ची बात कही है, इसलिए मैं तुम्हें कल्याणप्रद व्रत का उपदेश करता हूँ । तुम आषाढ़ मास के कृष्णपक्ष की ‘योगिनी एकादशी’ का व्रत करो । इस व्रत के पुण्य से तुम्हारा कोढ़ निश्चय ही दूर हो जायेगा ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं: राजन् ! मार्कण्डेयजी के उपदेश से उसने ‘योगिनी एकादशी’ का व्रत किया, जिससे उसके शरीर को कोढ़ दूर हो गया । उस उत्तम व्रत का अनुष्ठान करने पर वह पूर्ण सुखी हो गया ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
नृपश्रेष्ठ ! यह ‘योगिनी’ का व्रत ऐसा पुण्यशाली है कि अठ्ठासी हजार ब्राह्मणों को भोजन कराने से जो फल मिलता है, वही फल ‘योगिनी एकादशी’ का व्रत करनेवाले मनुष्य को मिलता है । ‘योगिनी’ महान पापों को शान्त करनेवाली और महान पुण्य फल देनेवाली है । इस माहात्म्य को पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">योगिनी एकादशी व्रत का महत्व </span></div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
योगिनी व्रत की कथा श्रवण का फल अट्ठासी सहस्त्र ब्राह्मणों को भोजन कराने के समान माना गया है. इस व्रत से समस्त पाप दूर होते है. भगवान नारायण की मूर्ति को स्नान कराकर पुष्प, धूप, दीप से आरती उतारनी चाहिए तथा भोग लगाना चाहिए. इस दिन गरीब ब्राह्माणों को दान देना कल्याणकारी माना जाता है.</div>
</div>
गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6460435484229472119.post-79555972341144326932017-06-05T09:56:00.000+05:302017-06-05T09:59:12.791+05:30गायत्री जयंती<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on" class="scrollbox">
<div style="text-align: justify;">
<div >
ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को देवी गायत्री का अवतरण माना जाता है। इस दिन को गायत्री जयंती के रूप में मनाते हैं। गायत्री को हिंदू भारतीय संस्कृति की जन्मदात्री मानते हैं। गायत्री मां से ही चारों वेदों की उत्पति मानी जाती हैं। इसलिये वेदों का सार भी गायत्री मंत्र को माना जाता है। मान्यता है कि चारों वेदों का ज्ञान लेने के बाद जिस पुण्य की प्राप्ति होती है अकेले गायत्री मंत्र को समझने मात्र से चारों वेदों का ज्ञान मिलता जाता है। गायत्री जयंती की तिथि को लेकर भिन्न-भिन्न मत सामने आते हैं। कुछ स्थानों पर गंगा दशहरा और गायत्री जयंती की तिथि एक समान बताई जाती है तो कुछ इसे गंगा दशहरे से अगले दिन यानि ज्येष्ठ मास की एकादशी को मनाते हैं। वहीं श्रावण पूर्णिमा को भी गायत्री जयंती के उत्सव को मनाया जाता है। श्रावण पूर्णिमा के दिन गायत्री जयंती को अधिकतर स्थानों पर स्वीकार किया जाता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiHUOl5TzhlUDBbJtAgm34aMhAwQjBba19VXFAPmyNoIFHkVg_sl-lMUn-Hok9sTOx5fcDmxg5Ap0-IVrOXtdSiCKN-8p5jDIF8LZEbhh00V97gJMaLze4yFyT97lyQAjuIEwbsGyGO32Af/s1600/e0a497e0a4bee0a4afe0a4a4e0a58de0a4b0e0a580-e0a49ce0a4afe0a482e0a4a4e0a580-0001.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiHUOl5TzhlUDBbJtAgm34aMhAwQjBba19VXFAPmyNoIFHkVg_sl-lMUn-Hok9sTOx5fcDmxg5Ap0-IVrOXtdSiCKN-8p5jDIF8LZEbhh00V97gJMaLze4yFyT97lyQAjuIEwbsGyGO32Af/s400/e0a497e0a4bee0a4afe0a4a4e0a58de0a4b0e0a580-e0a49ce0a4afe0a482e0a4a4e0a580-0001.jpg" width="298" /></a></div>
<br />
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
हिंदू धर्म में मां गायत्री को पंचमुखी माना गया है जिसका अर्थ है यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड जल, वायु, पृथ्वी, तेज और आकाश के पांच तत्वों से बना है। संसार में जितने भी प्राणी हैं, उनका शरीर भी इन्हीं पांच तत्वों से बना है। इस पृथ्वी पर प्रत्येक जीव के भीतर गायत्री प्राण-शक्ति के रूप में विद्यमान है। यही कारण है गायत्री को सभी शक्तियों का आधार माना गया है इसीलिए भारतीय संस्कृति में आस्था रखने वाले हर प्राणी को प्रतिदिन गायत्री उपासना अवश्य करनी चाहिए।<br />
<br />
माँ गायत्री को वेदमाता कहा गया है। सर्वप्रथम इस मंत्र और माँ गायत्री देवी का वर्णन विश्वामित्र ने किया था। विश्वामित्र ने ऋग्देव में इस मन्त्र को लिखा है। यह मन्त्र माँ गायत्री को समर्पित है जो वेदो की माता है। इस मन्त्र से आध्यात्मिक चेतना का विकास होता है। धार्मिक ग्रंथो में इसे आध्यात्मिक चेतना का स्त्रोत भी माना गया है। माँ गायत्री की महिमा चारो वेद में निहित है। ऐसी मान्यता है कि जो फल ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद के अध्ययन से प्राप्त होता है। गायत्री मन्त्र के जाप से एक समान फल प्राप्त होता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #073763; font-size: large;"><b>गायत्री की कथाऐं </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<hr />
</div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #660000;">कौन हैं गायत्री</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
भगवती गायत्री आद्याशक्ति प्रकृति के पाँच स्वरूपों में एक मानी गयी हैं। इनका विग्रह तपाये हुए स्वर्ण के समान है। यही वेद माता कहलाती हैं। चारों वेद, शास्त्र और श्रुतियां सभी गायत्री से ही पैदा हुए माने जाते हैं। वेदों की उत्पति के कारण इन्हें वेदमाता कहा जाता है, ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देवताओं की आराध्य भी इन्हें ही माना जाता है इसलिये इन्हें देवमाता भी कहा जाता है। माना जाता है कि समस्त ज्ञान की देवी भी गायत्री हैं इस कारण ज्ञान-गंगा भी गायत्री को कहा जाता है। वास्तव में भगवती गायत्री नित्यसिद्ध परमेश्वरी हैं। किसी समय ये सविता की पुत्री के रूप में अवतीर्ण हुई थीं, इसलिये इनका नाम सावित्री पड़ गया।कहते हैं कि सविता के मुख से इनका प्रादुर्भाव हुआ था। भगवान सूर्य ने इन्हें ब्रह्माजी को समर्पित कर दिया। तभी से इनकी ब्रह्माणी संज्ञा हुई।कहीं-कहीं सावित्री और गायत्री के पृथक्-पृथक् स्वरूपों का भी वर्णन मिलता है। इन्होंने ही प्राणों का त्राण किया था, इसलिये भी इनका गायत्री नाम प्रसिद्ध हुआ।उपनिषदों में भी गायत्री और सावित्री की अभिन्नता का वर्णन है- गायत्रीमेव सावित्रीमनुब्रूयात्। गायत्री ज्ञान-विज्ञान की मूर्ति हैं। ये द्विजाति मात्र की आराध्या देवी हैं। इन्हें परब्रह्मस्वरूपिणी कहा गया है। वेदों, उपनिषदों और पुराणादि में इनकी विस्तृत महिमा का वर्णन मिलता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #660000;">कैसे हुआ गायत्री का विवाह</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
कहा जाता है कि एक बार भगवान ब्रह्मा यज्ञ में शामिल होने जा रहे थे। मान्यता है कि यदि धार्मिक कार्यों में पत्नी साथ हो तो उसका फल अवश्य मिलता है लेकिन उस समय किसी कारणवश ब्रह्मा जी के साथ उनकी पत्नी सावित्रि मौजूद नहीं थी इस कारण उन्होंनें यज्ञ में शामिल होने के लिये वहां मौजूद देवी गायत्री से विवाह कर लिया। उसके पश्चात एक विशेष वर्ग ने देवी गायत्री की आराधना शुरु कर दी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #660000;">कैसे हुआ गायत्री का अवतरण</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
माना जाता है कि सृष्टि के आदि में ब्रह्मा जी पर गायत्री मंत्र प्रकट हुआ। मां गायत्री की कृपा से ब्रह्मा जी ने गायत्री मंत्र की व्याख्या अपने चारों मुखों से चार वेदों के रुप में की। आरंभ में गायत्री सिर्फ देवताओं तक सीमित थी लेकिन जिस प्रकार भगीरथ कड़े तप से गंगा मैया को स्वर्ग से धरती पर उतार लाये उसी तरह विश्वामित्र ने भी कठोर साधना कर मां गायत्री की महिमा अर्थात गायत्री मंत्र को सर्वसाधारण तक पंहुचाया।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #073763; font-size: large;"><b>गायत्री उपासना </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<hr />
</div>
<div style="text-align: justify;">
<div>
गायत्री की उपासना तीनों कालों में की जाती है, प्रात: मध्याह्न और सायं। तीनों कालों के लिये इनका पृथक्-पृथक् ध्यान है।प्रात:काल ये सूर्यमण्डल के मध्य में विराजमान रहती है। उस समय इनके शरीर का रंग लाल रहता है। ये अपने दो हाथों में क्रमश: अक्षसूत्र और कमण्डलु धारण करती हैं। इनका वाहन हंस है तथा इनकी कुमारी अवस्था है। इनका यही स्वरूप ब्रह्मशक्ति गायत्री के नाम से प्रसिद्ध है। इसका वर्णन ऋग्वेद में प्राप्त होता है।मध्याह्न काल में इनका युवा स्वरूप है। इनकी चार भुजाएँ और तीन नेत्र हैं। इनके चारों हाथों में क्रमश: शंख, चक्र, गदा और पद्म शोभा पाते हैं। इनका वाहन गरूड है। गायत्री का यह स्वरूप वैष्णवी शक्ति का परिचायक है। इस स्वरूप को सावित्री भी कहते हैं। इसका वर्णन यजुर्वेद में मिलता है।सायं काल में गायत्री की अवस्था वृद्धा मानी गयी है। इनका वाहन वृषभ है तथा शरीर का वर्ण शुक्ल है। ये अपने चारों हाथों में क्रमश: त्रिशूल, डमरू, पाश और पात्र धारण करती हैं। यह रुद्र शक्ति की परिचायिका हैं इसका वर्णन सामवेद में प्राप्त होता है।</div>
<div>
<br /></div>
<div>
इस प्रकार गायत्री, सावित्री और सरस्वती एक ही ब्रह्मशक्ति के नाम हैं। इस संसार में सत-असत जो कुछ हैं, वह सब ब्रह्मस्वरूपा गायत्री ही हैं। भगवान व्यास कहते हैं- 'जिस प्रकार पुष्पों का सार मधु, दूध का सार घृत और रसों का सार पय है, उसी प्रकार गायत्री मन्त्र समस्त वेदों का सार है। गायत्री वेदों की जननी और पाप-विनाशिनी हैं, गायत्री-मन्त्र से बढ़कर अन्य कोई पवित्र मन्त्र पृथ्वी पर नहीं है। गायत्री-मन्त्र ऋक्, यजु, साम, काण्व, कपिष्ठल, मैत्रायणी, तैत्तिरीय आदि सभी वैदिक संहिताओं में प्राप्त होता है, किन्तु सर्वत्र एक ही मिलता है। इसमें चौबीस अक्षर हैं। मन्त्र का मूल स्वरूप इस प्रकार है-</div>
<div>
<br /></div>
<div>
<div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #990000;">ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्</span></b></div>
</div>
<div>
<br /></div>
<div>
ॐ - ईश्वर<br />
भू: - प्राणस्वरूप<br />
भुव: - दु:खनाशक<br />
स्व: - सुख स्वरूप<br />
तत् - उस<br />
सवितु: - तेजस्वी<br />
वरेण्यं - श्रेष्ठ<br />
भर्ग: - पापनाशक<br />
देवस्य - दिव्य<br />
धीमहि - धारण करे<br />
धियो - बुद्धि<br />
यो - जो<br />
न: - हमारी<br />
प्रचोदयात् - प्रेरित करे</div>
<div>
<br /></div>
<div>
सभी को जोड़ने पर अर्थ है- उस प्राणस्वरूप, दु:ख नाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देव स्वरूप परमात्मा को हम अन्तरात्मा में धारण करें। वह ईश्वर हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करें।</div>
</div>
<div>
<br /></div>
<div>
याज्ञवल्क्य आदि ऋषियों ने जिस गायत्री भाष्य की रचना की है वह इन चौबीस अक्षरों की विस्तृत व्याख्या है। इस महामन्त्र के द्रष्टा महर्षि विश्वामित्र हैं। गायत्री-मन्त्र के चौबीस अक्षर तीन पदों में विभक्त हैं। अत: यह त्रिपदा गायत्री कहलाती है। गायत्री दैहिक, दैविक, भौतिक त्रिविध तापहन्त्री एवं परा विद्या की स्वरूपा हैं। यद्यपि गायत्री के अनेक रूप हैं। परन्तु शारदातिलक के अनुसार इनका मुख्य ध्यान इस प्रकार है- भगवती गायत्री के पाँच मुख हैं, जिन पर मुक्ता, वैदूर्य, हेम, नीलमणि तथा धवल वर्ण की आभा सुशोभित है, त्रिनेत्रों वाली ये देवी चन्द्रमा से युक्त रत्नों का मुकुट धारण करती हैं तथा आत्मतत्त्व की प्रकाशिका हैं। ये कमल के आसन पर आसीन होकर रत्नों के आभूषण धारण करती हैं। इनके दस हाथों में क्रमश: शंख, चक्र, कमलयुग्म, वरद तथा अभयमुद्रा, कोड़ा, अंकुश, शुभ्र कपाल और रुद्राक्ष की माला सुशोभित है। ऐसी भगवती गायत्री का हम भजन करते हैं।</div>
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<span style="color: #073763; font-size: large;"><b>गायत्री जयंती पूजन</b></span></div>
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इस दिन प्रातः काल उठे, स्नान-ध्यान से निवृत होकर माँ गायत्री के निम्मित व्रत एवम पूजा का संकल्प लें। माँ गायत्री की प्रतिमा अथवा चित्र को स्थापित कर उनकी विधि-विधान पूर्वक पूजा करना चाहिए। माँ गायत्री पंचमुखी है जो मनुष्य के अंतरात्मा में निहित है। अतः माँ की पूजा प्राण स्वरूप में करें। माँ गायत्री की कृपा से व्रती के जीवन की समस्त विघ्न दूर हो जाती है। </div>
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<span style="color: #073763; font-size: large;"><b>गायत्री की महिमा</b></span></div>
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गायत्री की महिमा में प्राचीन भारत के ऋषि-मुनियों से लेकर आधुनिक भारत के विचारकों तक अनेक बातें कही हैं। वेद, शास्त्र और पुराण तो गायत्री मां की महिमा गाते ही हैं।</div>
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अथर्ववेद में मां गायत्री को आयु, प्राण, शक्ति, कीर्ति, धन और ब्रह्मतेज प्रदान करने वाली देवी कहा गया है। </div>
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महाभारत के रचयिता वेद व्यास कहते हैं गायत्री की महिमा में कहते हैं जैसे फूलों में शहद, दूध में घी सार रूप में होता है वैसे ही समस्त वेदों का सार गायत्री है। यदि गायत्री को सिद्ध कर लिया जाये तो यह कामधेनू (इच्छा पूरी करने वाली दैवीय गाय) के समान है। जैसे गंगा शरीर के पापों को धो कर तन मन को निर्मल करती है उसी प्रकार गायत्री रूपी ब्रह्म गंगा से आत्मा पवित्र हो जाती है। </div>
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गायत्री को सर्वसाधारण तक पहुंचाने वाले विश्वामित्र कहते हैं कि ब्रह्मा जी ने तीनों वेदों का सार तीन चरण वाला गायत्री मंत्र निकाला है। गायत्री से बढ़कर पवित्र करने वाला मंत्र और कोई नहीं है। जो मनुष्य नियमित रूप से गायत्री का जप करता है वह पापों से वैसे ही मुक्त हो जाता है जैसे केंचुली से छूटने पर सांप होता है। </div>
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<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; color: black; font-family: 'Times New Roman'; font-size: medium; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: auto; text-align: justify; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 1; word-spacing: 0px;">
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गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6460435484229472119.post-35443104962312084842017-06-05T09:54:00.002+05:302017-06-05T10:04:49.496+05:30निर्जला एकादशी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on" class="scrollbox">
<div style="text-align: justify;">
<div >
साल की सभी चौबीस एकादशियों में से निर्जला एकादशी सबसे अधिक महत्वपूर्ण एकादशी है। बिना पानी के व्रत को निर्जला व्रत कहते हैं और निर्जला एकादशी का उपवास किसी भी प्रकार के भोजन और पानी के बिना किया जाता है। उपवास के कठोर नियमों के कारण सभी एकादशी व्रतों में निर्जला एकादशी व्रत सबसे कठिन होता है। निर्जला एकादशी व्रत को करते समय श्रद्धालु लोग भोजन ही नहीं बल्कि पानी भी ग्रहण नहीं करते हैं।</div>
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लाभ - जो श्रद्धालु साल की सभी चौबीस एकादशियों का उपवास करने में सक्षम नहीं है उन्हें केवल निर्जला एकादशी उपवास करना चाहिए क्योंकि निर्जला एकादशी उपवास करने से दूसरी सभी एकादशियों का लाभ मिल जाता हैं।</div>
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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<b><span style="color: #0b5394; font-size: large;">निर्जला एकादशी कथा</span></b></div>
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निर्जला एकादशी से सम्बन्धित पौराणिक कथा के कारण इसे पाण्डव एकादशी और भीमसेनी या भीम एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। पाण्डवों में दूसरा भाई भीमसेन खाने-पीने का अत्यधिक शौक़ीन था और अपनी भूख को नियन्त्रित करने में सक्षम नहीं था इसी कारण वह एकादशी व्रत को नही कर पाता था। भीम के अलावा बाकि पाण्डव भाई और द्रौपदी साल की सभी एकादशी व्रतों को पूरी श्रद्धा भक्ति से किया करते थे। भीमसेन अपनी इस लाचारी और कमजोरी को लेकर परेशान था। भीमसेन को लगता था कि वह एकादशी व्रत न करके भगवान विष्णु का अनादर कर रहा है। इस दुविधा से उभरने के लिए भीमसेन महर्षि व्यास के पास गया तब महर्षि व्यास ने भीमसेन को साल में एक बार निर्जला एकादशी व्रत को करने कि सलाह दी और कहा कि निर्जला एकादशी साल की चौबीस एकादशियों के तुल्य है। इसी पौराणिक कथा के बाद निर्जला एकादशी भीमसेनी एकादशी और पाण्डव एकादशी के नाम से प्रसिद्ध हो गयी।</div>
<div style="text-align: justify;">
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युधिष्ठिर ने कहा : जनार्दन ! ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी पड़ती हो, कृपया उसका वर्णन कीजिये </div>
<div style="text-align: justify;">
भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! इसका वर्णन परम धर्मात्मा सत्यवतीनन्दन व्यासजी करेंगे, क्योंकि ये सम्पूर्ण शास्त्रों के तत्त्वज्ञ और वेद वेदांगों के पारंगत विद्वान हैं ।*</div>
<div style="text-align: justify;">
तब वेदव्यासजी कहने लगे : दोनों ही पक्षों की एकादशियों के दिन भोजन न करे । द्वादशी के दिन स्नान आदि से पवित्र हो फूलों से भगवान केशव की पूजा करे । फिर नित्य कर्म समाप्त होने के पश्चात् पहले ब्राह्मणों को भोजन देकर अन्त में स्वयं भोजन करे । राजन् ! जननाशौच और मरणाशौच में भी एकादशी को भोजन नहीं करना चाहिए ।*</div>
<div style="text-align: justify;">
यह सुनकर भीमसेन बोले : परम बुद्धिमान पितामह ! मेरी उत्तम बात सुनिये । राजा युधिष्ठिर, माता कुन्ती, द्रौपदी, अर्जुन, नकुल और सहदेव ये एकादशी को कभी भोजन नहीं करते तथा मुझसे भी हमेशा यही कहते हैं कि : ‘भीमसेन ! तुम भी एकादशी को न खाया करो…’ किन्तु मैं उन लोगों से यही कहता हूँ कि मुझसे भूख नहीं सही जायेगी ।*</div>
<div style="text-align: justify;">
भीमसेन की बात सुनकर व्यासजी ने कहा : यदि तुम्हें स्वर्गलोक की प्राप्ति अभीष्ट है और नरक को दूषित समझते हो तो दोनों पक्षों की एकादशीयों के दिन भोजन न करना ।*</div>
<div style="text-align: justify;">
भीमसेन बोले : महाबुद्धिमान पितामह ! मैं आपके सामने सच्ची बात कहता हूँ । एक बार भोजन करके भी मुझसे व्रत नहीं किया जा सकता, फिर उपवास करके तो मैं रह ही कैसे सकता हूँ? मेरे उदर में वृक नामक अग्नि सदा प्रज्वलित रहती है, अत: जब मैं बहुत अधिक खाता हूँ, तभी यह शांत होती है । इसलिए महामुने ! मैं वर्षभर में केवल एक ही उपवास कर सकता हूँ । जिससे स्वर्ग की प्राप्ति सुलभ हो तथा जिसके करने से मैं कल्याण का भागी हो सकूँ, ऐसा कोई एक व्रत निश्चय करके बताइये । मैं उसका यथोचित रुप से पालन करुँगा ।*</div>
<div style="text-align: justify;">
व्यासजी ने कहा : भीम ! ज्येष्ठ मास में सूर्य वृष राशि पर हो या मिथुन राशि पर, शुक्लपक्ष में जो एकादशी हो, उसका यत्नपूर्वक निर्जल व्रत करो । केवल कुल्ला या आचमन करने के लिए मुख में जल डाल सकते हो, उसको छोड़कर किसी प्रकार का जल विद्वान पुरुष मुख में न डाले, अन्यथा व्रत भंग हो जाता है । एकादशी को सूर्यौदय से लेकर दूसरे दिन के सूर्यौदय तक मनुष्य जल का त्याग करे तो यह व्रत पूर्ण होता है । तदनन्तर द्वादशी को प्रभातकाल में स्नान करके ब्राह्मणों को विधिपूर्वक जल और सुवर्ण का दान करे । इस प्रकार सब कार्य पूरा करके जितेन्द्रिय पुरुष ब्राह्मणों के साथ भोजन करे । वर्षभर में जितनी एकादशीयाँ होती हैं, उन सबका फल निर्जला एकादशी के सेवन से मनुष्य प्राप्त कर लेता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है । शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान केशव ने मुझसे कहा था कि: ‘यदि मानव सबको छोड़कर एकमात्र मेरी शरण में आ जाय और एकादशी को निराहार रहे तो वह सब पापों से छूट जाता है ।’*</div>
<div style="text-align: justify;">
एकादशी व्रत करनेवाले पुरुष के पास विशालकाय, विकराल आकृति और काले रंगवाले दण्ड पाशधारी भयंकर यमदूत नहीं जाते । अंतकाल में पीताम्बरधारी, सौम्य स्वभाववाले, हाथ में सुदर्शन धारण करनेवाले और मन के समान वेगशाली विष्णुदूत आखिर इस वैष्णव पुरुष को भगवान विष्णु के धाम में ले जाते हैं । अत: निर्जला एकादशी को पूर्ण यत्न करके उपवास और श्रीहरि का पूजन करो । स्त्री हो या पुरुष, यदि उसने मेरु पर्वत के बराबर भी महान पाप किया हो तो वह सब इस एकादशी व्रत के प्रभाव से भस्म हो जाता है । जो मनुष्य उस दिन जल के नियम का पालन करता है, वह पुण्य का भागी होता है । उसे एक एक प्रहर में कोटि कोटि स्वर्णमुद्रा दान करने का फल प्राप्त होता सुना गया है । मनुष्य निर्जला एकादशी के दिन स्नान, दान, जप, होम आदि जो कुछ भी करता है, वह सब अक्षय होता है, यह भगवान श्रीकृष्ण का कथन है । निर्जला एकादशी को विधिपूर्वक उत्तम रीति से उपवास करके मानव वैष्णवपद को प्राप्त कर लेता है । जो मनुष्य एकादशी के दिन अन्न खाता है, वह पाप का भोजन करता है । इस लोक में वह चाण्डाल के समान है और मरने पर दुर्गति को प्राप्त होता है ।*</div>
<div style="text-align: justify;">
जो ज्येष्ठ के शुक्लपक्ष में एकादशी को उपवास करके दान करेंगे, वे परम पद को प्राप्त होंगे । जिन्होंने एकादशी को उपवास किया है, वे ब्रह्महत्यारे, शराबी, चोर तथा गुरुद्रोही होने पर भी सब पातकों से मुक्त हो जाते हैं ।*</div>
<div style="text-align: justify;">
कुन्तीनन्दन ! ‘निर्जला एकादशी’ के दिन श्रद्धालु स्त्री पुरुषों के लिए जो विशेष दान और कर्त्तव्य विहित हैं, उन्हें सुनो: उस दिन जल में शयन करनेवाले भगवान विष्णु का पूजन और जलमयी धेनु का दान करना चाहिए अथवा प्रत्यक्ष धेनु या घृतमयी धेनु का दान उचित है । पर्याप्त दक्षिणा और भाँति भाँति के मिष्ठान्नों द्वारा यत्नपूर्वक ब्राह्मणों को सन्तुष्ट करना चाहिए । ऐसा करने से ब्राह्मण अवश्य संतुष्ट होते हैं और उनके संतुष्ट होने पर श्रीहरि मोक्ष प्रदान करते हैं । जिन्होंने शम, दम, और दान में प्रवृत हो श्रीहरि की पूजा और रात्रि में जागरण करते हुए इस ‘निर्जला एकादशी’ का व्रत किया है, उन्होंने अपने साथ ही बीती हुई सौ पीढ़ियों को और आनेवाली सौ पीढ़ियों को भगवान वासुदेव के परम धाम में पहुँचा दिया है । निर्जला एकादशी के दिन अन्न, वस्त्र, गौ, जल, शैय्या, सुन्दर आसन, कमण्डलु तथा छाता दान करने चाहिए । जो श्रेष्ठ तथा सुपात्र ब्राह्मण को जूता दान करता है, वह सोने के विमान पर बैठकर स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है । जो इस एकादशी की महिमा को भक्तिपूर्वक सुनता अथवा उसका वर्णन करता है, वह स्वर्गलोक में जाता है । चतुर्दशीयुक्त अमावस्या को सूर्यग्रहण के समय श्राद्ध करके मनुष्य जिस फल को प्राप्त करता है, वही फल इसके श्रवण से भी प्राप्त होता है । पहले दन्तधावन करके यह नियम लेना चाहिए कि : ‘मैं भगवान केशव की प्रसन्न्ता के लिए एकादशी को निराहार रहकर आचमन के सिवा दूसरे जल का भी त्याग करुँगा ।’ द्वादशी को देवेश्वर भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए । गन्ध, धूप, पुष्प और सुन्दर वस्त्र से विधिपूर्वक पूजन करके जल के घड़े के दान का संकल्प करते हुए निम्नांकित मंत्र का उच्चारण करे :*</div>
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<b><span style="color: #990000;">देवदेव ह्रषीकेश संसारार्णवतारक ।</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #990000;">उदकुम्भप्रदानेन नय मां परमां गतिम्॥</span></b></div>
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‘संसारसागर से तारनेवाले हे देवदेव ह्रषीकेश ! इस जल के घड़े का दान करने से आप मुझे परम गति की प्राप्ति कराइये ।’*</div>
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भीमसेन ! ज्येष्ठ मास में शुक्लपक्ष की जो शुभ एकादशी होती है, उसका निर्जल व्रत करना चाहिए । उस दिन श्रेष्ठ ब्राह्मणों को शक्कर के साथ जल के घड़े दान करने चाहिए । ऐसा करने से मनुष्य भगवान विष्णु के समीप पहुँचकर आनन्द का अनुभव करता है । तत्पश्चात् द्वादशी को ब्राह्मण भोजन कराने के बाद स्वयं भोजन करे । जो इस प्रकार पूर्ण रुप से पापनाशिनी एकादशी का व्रत करता है, वह सब पापों से मुक्त हो आनंदमय पद को प्राप्त होता है ।*</div>
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यह सुनकर भीमसेन ने भी इस शुभ एकादशी का व्रत आरम्भ कर दिया । तबसे यह लोक मे ‘पाण्डव द्वादशी’ के नाम से विख्यात हुई ।</div>
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<span style="color: #0b5394; font-size: large;"><b><br /></b></span></div>
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<span style="color: #0b5394; font-size: large;"><b>निर्जला एकादशी का व्रत </b></span></div>
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निर्जला एकादशी का व्रत ज्येष्ठ माह में शुक्ल पक्ष के दौरान किया जाता है। अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार निर्जला एकादशी का व्रत मई अथवा जून के महीने में होता है। साधारणतः निर्जला एकादशी का व्रत गँगा दशहरा के अगले दिन पड़ता है परन्तु कभी कभी साल में गँगा दशहरा और निर्जला एकादशी दोनों एक ही दिन पड़ जाते हैं।</div>
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एकादशी के व्रत को समाप्त करने को पारण कहते हैं। एकादशी व्रत के अगले दिन सूर्योदय के बाद पारण किया जाता है। एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि समाप्त होने से पहले करना अति आवश्यक है। यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पहले समाप्त हो गयी हो तो एकादशी व्रत का पारण सूर्योदय के बाद ही होता है। द्वादशी तिथि के भीतर पारण न करना पाप करने के समान होता है।</div>
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एकादशी व्रत का पारण हरि वासर के दौरान भी नहीं करना चाहिए। जो श्रद्धालु व्रत कर रहे हैं उन्हें व्रत तोड़ने से पहले हरि वासर समाप्त होने की प्रतिक्षा करनी चाहिए। हरि वासर द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई अवधि है। व्रत तोड़ने के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रातःकाल होता है। व्रत करने वाले श्रद्धालुओं को मध्यान के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिए। कुछ कारणों की वजह से अगर कोई प्रातःकाल पारण करने में सक्षम नहीं है तो उसे मध्यान के बाद पारण करना चाहिए।</div>
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कभी कभी एकादशी व्रत लगातार दो दिनों के लिए हो जाता है। जब एकादशी व्रत दो दिन होता है तब स्मार्त-परिवारजनों को पहले दिन एकादशी व्रत करना चाहिए। दुसरे दिन वाली एकादशी को दूजी एकादशी कहते हैं। सन्यासियों, विधवाओं और मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक श्रद्धालुओं को दूजी एकादशी के दिन व्रत करना चाहिए। जब-जब एकादशी व्रत दो दिन होता है तब-तब दूजी एकादशी और वैष्णव एकादशी एक ही दिन होती हैं।.</div>
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भगवान विष्णु का प्यार और स्नेह के इच्छुक परम भक्तों को दोनों दिन एकादशी व्रत करने की सलाह दी जाती है।</div>
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</div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6460435484229472119.post-43722260891463852992017-05-25T00:00:00.000+05:302017-05-04T13:28:20.906+05:30वट सावित्री व्रत ( ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या )<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="scrollbox">
<div style="text-align: justify;">
हिन्दू धर्म में वट सावित्री व्रत को करवा चौथ के समान ही माना जाता है। भारतीय धर्म में वट सावित्री अमावस्या स्त्रियों का महत्वपूर्ण पर्व है। इस व्रत को संपन्न कर सावित्री ने यमराज को हरा कर अपने पति सत्यवान के प्राण बचाए थे।मूलतः यह व्रत-पूजन सौभाग्यवती स्त्रियों का है। फिर भी सभी प्रकार की स्त्रियां (कुमारी, विवाहिता, विधवा, कुपुत्रा, सुपुत्रा आदि) इसे करती हैं।इस व्रत में महिलाएं वट वृक्ष की पूजा करती हैं, सति सावित्री की कथा सुनने व वाचन करने से सौभाग्यवति महिलाओं की अखंड सौभाग्य की कामना पूरी होती है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEix_qFwy4C0_SJvZnmYVl080p4g8M1ezZDvoD-11wIul1Yf3jyWdNDTQB4Q5BBbJHo-Nh0VDrQL7vZlQKgj3RsVxf4rAUR_daTvjpYiMMyDGjFnjZfoy8BID_cwf1giEM0TBrgmBtU3Qzif/s1600/1464859515-202.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="224" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEix_qFwy4C0_SJvZnmYVl080p4g8M1ezZDvoD-11wIul1Yf3jyWdNDTQB4Q5BBbJHo-Nh0VDrQL7vZlQKgj3RsVxf4rAUR_daTvjpYiMMyDGjFnjZfoy8BID_cwf1giEM0TBrgmBtU3Qzif/s400/1464859515-202.jpg" width="400" /></a></div>
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<div style="text-align: justify;">
वट सावित्री व्रत सौभाग्य को देने वाला और संतान की प्राप्ति में सहायता देने वाला व्रत माना गया है। भारतीय संस्कृति में यह व्रत आदर्श नारीत्व का प्रतीक बन चुका है। इस व्रत की तिथि को लेकर भिन्न मत हैं। स्कंद पुराण तथा भविष्योत्तर पुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को यह व्रत करने का विधान है, वहीं निर्णयामृत आदि के अनुसार ज्येष्ठ मास की अमावस्या को व्रत करने की बात कही गई है।तिथियों में भिन्नता होते हुए भी व्रत का उद्देश्य एक ही है : सौभाग्य की वृद्धि और पतिव्रत के संस्कारों को आत्मसात करना। कई व्रत विशेषज्ञ यह व्रत ज्येष्ठ मास की त्रयोदशी से अमावस्या तक तीन दिनों तक करने में भरोसा रखते हैं। इसी तरह शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी से पूर्णिमा तक भी यह व्रत किया जाता है। विष्णु उपासक इस व्रत को पूर्णिमा को करना ज्यादा हितकर मानते हैं।</div>
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<div style="text-align: justify;">
वट सावित्री व्रत में 'वट' और 'सावित्री' दोनों का विशिष्ट महत्व माना गया है। पीपल की तरह वट या बरगद के पेड़ का भी विशेष महत्व है। पाराशर मुनि के अनुसार- 'वट मूले तोपवासा' ऐसा कहा गया है। पुराणों में यह स्पष्ट किया गया है कि वट में ब्रह्मा, विष्णु व महेश तीनों का वास है। इसके नीचे बैठकर पूजन, व्रत कथा आदि सुनने से मनोकामना पूरी होती है। वट वृक्ष अपनी विशालता के लिए भी प्रसिद्ध है। संभव है वनगमन में ज्येष्ठ मास की तपती धूप से रक्षा के लिए भी वट के नीचे पूजा की जाती रही हो और बाद में यह धार्मिक परंपरा के रूपमें विकसित हो गई हो।</div>
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दार्शनिक दृष्टि से देखें तो वट वृक्ष दीर्घायु व अमरत्व-बोध के प्रतीक के नाते भी स्वीकार किया जाता है। वट वृक्ष ज्ञान व निर्वाण का भी प्रतीक है। भगवान बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। इसलिए वट वृक्ष को पति की दीर्घायु के लिए पूजना इस व्रत का अंग बना। महिलाएँ व्रत-पूजन कर कथा कर्म के साथ-साथ वट वृक्ष के आसपास सूत के धागे परिक्रमा के दौरान लपेटती हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
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<div style="text-align: justify;">
वट वृक्ष का पूजन और सावित्री-सत्यवान की कथा का स्मरण करने के विधान के कारण ही यह व्रत वट सावित्री के नाम से प्रसिद्ध हुआ।सावित्री भारतीय संस्कृति में ऐतिहासिक चरित्र माना जाता है। सावित्री का अर्थ वेद माता गायत्री और सरस्वती भी होता है। सावित्री का जन्म भी विशिष्ट परिस्थितियों में हुआ था। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #073763; font-size: large;"><b>वट सवित्री व्रत कथा </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<hr />
</div>
<div style="text-align: justify;">
प्राचीनकाल में मद्रदेश में अश्वपति नाम के एक राजा राज्य करते थे। वे बड़े धर्मात्मा, ब्राह्मणभक्त, सत्यवादी और जितेन्द्रिय थे। राजा को सब प्रकार का सुख था, किन्तु कोई सन्तान नहीं थी। इसलिये उन्होंने सन्तान प्राप्ति की कामना से अठारह वर्षों तक पत्नि सहित सावित्री देवी का विधि पूर्वक व्रत तथा पूजन कठोर तपस्या की। सर्वगुण देवी सावित्री ने प्रसन्न होकर पुत्री के रूप में अश्वपति के घर जन्म लेने का वर दिया। यथासमय राजा की बड़ी रानी के गर्भ से एक परम तेजस्विनी सुन्दर कन्या ने जन्म लिया। राजा ने उस कन्या का नाम सावित्री रखा। राजकन्या शुक्ल पक्षके चन्द्रमा की भाँति दिनों-दिन बढ़ने लगी। धीरे-धीरे उसने युवावस्था में प्रवेश किया। उसके रूप-लावण्य को जो भी देखता उसपर मोहित हो जाता।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
कन्या के युवा होने पर अश्वपति ने सावित्री के विवाह का विचार किया । राजा के विशेष प्रयास करने पर भी सावित्री के योग्य कोई वर नहीं मिला। उन्होंने एक दिन सावित्री से कहा—‘बेटी ! अब तुम विवाह के योग्य हो गयी हो, इसलिये स्वयं अपने योग्य वर की खोज करो।’ पिताकी आज्ञा स्वीकार कर सावित्री योग्य मन्त्रियों के साथ स्वर्ण-रथपर बैठकर यात्रा के लिये निकली। कुछ दिनों तक ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों के तपोवनों और तीर्थोंमें भ्रमण करने के बाद वह राजमहल में लौट आयी। उसने पिता के साथ देवर्षि नारद को बैठे देखकर उन दोनों के चरणों में श्रद्धा से प्रणाम किया। महाराज अश्वपति ने सावित्री से उसी यात्रा का समाचार पूछा सावित्री ने कहा—पिताजी ! तपोवन में अपने माता-पिता के साथ निवास कर रहे द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान् सर्वथा मेरे योग्य हैं। अतः सत्यवान की कीर्ति सुनकर उन्हें मैंने पति रूप में वरण कर लिया है | ’ नारद जी सत्यवान तथा सावित्री के ग्रहो की गणना कर राजा अश्वति से बोले—‘राजन ! सावित्री ने बहुत बड़ी भूल कर दी है। सत्यवान् के पिता शत्रुओं के द्वारा राज्य से वंचित कर दिये गये हैं, वे वन में तपस्वी जीवन व्यतीत कर रहे हैं और अन्धे हो चुके हैं। सबसे बड़ी कमी यह है कि सत्यवान् की आयु अब केवल एक वर्ष ही शेष है। और सावित्री के बारह वर्ष की आयु होने पर सत्यवान कि मृत्यु हो जायेगी ।’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
नारदजी की बात सुनकर राजा अश्वपति व्यग्र हो गये। उन्होंने सावित्री से कहा—‘बेटी ! अब तुम फिर से यात्रा करो और किसी दूसरे योग्य वर का वरण करो।’ </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
सावित्री सती थी। उसने दृढ़ता से कहा—‘पिताजी ! आर्य कन्या होने के नाते जब मै सत्यवान का वरण कर चुकी हूँ तो अब सत्यवान् चाहे अल्पायु हों या दीर्घायु, अब तो वही मेरे पति बनेगें। जब मैंने एक बार उन्हें अपना पति स्वीकार कर लिया, फिर मैं दूसरे पुरुषका वरण कैसे कर सकती हूँ ?’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
सावित्री का निश्चय दृढ़ जानकर महाराज अश्वपति ने उसका विवाह सत्यवान् से कर दिया।सावित्री ने नारदजी से सत्यवान की मृत्यु का समय ज्ञातकर लिया तथा अपने श्वसुर परिवार के साथ जंगल मे रहने लगी । धीरे-धीरे वह समय भी आ पहुँचा, जिसमें सत्यवान् की मृत्यु निश्चित थी। सावित्री ने नादरजी द्वारा बताय हुये दिन से तीन दिन पूर्व से ही निराहार व्रत रखना शुरू कर दिया था। नारद द्वारा निश्चित तिथि को पति एवं सास-ससुर की आज्ञा से सावित्री भी उस दिन पति के साथ जंगल में फल-मूल और लकड़ी लेने के लिये गयी। सत्यवान वन में पहुँचकर लकडी काटने के लिए बड के पेड पर चढा । अचानक वृक्ष से लकड़ी काटते समय सत्यवान् के सिर में भंयकर पीडा होने लगी और वह पेड़ से नीचे उतरा। सावित्री ने उसे बड के पेड के नीचे लिटा कर उसका सिर अपनी गोद में रख लिया (कही-कही ऐसा भी उल्लेख मिलता हैं कि वट वृक्ष के नीचे लेटे हुए सत्यवान को सर्प ने डस लिया था) । उसी समय सावित्री को लाल वस्त्र पहने भयंकर आकृति वाला एक पुरुष दिखायी पड़ा। वे साक्षात् यमराज थे। यमराज ने ब्रम्हा के विधान के रूप रेखा सावित्री के सामने स्पष्ट की और सावित्री से कहा—‘तू पतिव्रता है। तेरे पति की आयु समाप्त हो गयी है। मैं इसे लेने आया हूँ।’ इतना कहकर देखते ही देखते यमराज ने सत्यवान के शरीर से सूक्ष्म जीवन को निकाला और सत्यवान के प्राणो को लेकर वे दक्षिण दिशा की ओर चल दिये। सावित्री भी सत्यावान को वट वृक्ष के नीचे ही लिटाकर यमराज के पीछे पीछे चल दी । पीछे आती हुई सावित्री को यमराज ने उसे लौट जाने का आदेश दिया । इस पर वह बोली महराज जहा पति वही पत्नि । यही धर्म है, यही मर्यादा है । सावित्री की बुद्धिमत्ता पूर्ण और धर्मयुक्त बाते सुनकर यमराज का हृदय पिघल गया। सावित्री के धर्म निष्ठा से प्रसन्न होकर यमराज बोले पति के प्राणो से अतिरिक्त कुछ भी माँग लो । सावित्री ने यमराज से सास-श्वसुर के आँखो ज्योती और दीर्घायु माँगी । यमराज तथास्तु कहकर आगे बढ गए सावित्री भी यमराज का पीछा करते हुये रही । यमराज ने अपने पीछे आती सावित्री से वापिस लौटे जाने को कहा तो सावित्री बोली पति के बिना नारी के जीवन के कोई सार्थकता नही । यमराज ने सावित्री के पति व्रत धर्म से खुश होकर पुनः वरदान माँगने के लिये कहा इस बार उसने अपने श्वसुर का राज्य वापिस दिलाने की प्रार्थना की । तथास्तु कहकर यमराज आगे चल दिए सावित्री अब भी यमराज के पीछे चलती रही इस बार सावित्री ने सौ पुत्रो का वरदान दिया है, पर पति के बिना मैं पुत्रो का वरदान दिया है पर पति के बिना मैं माँ किस प्रकार बन सकती हूँ, अपना यह तीसरा वरदान पूरा कीजिए। सावित्री की धर्मनिष्ठा,ज्ञान, विवेक तथा पतिव्रत धर्म की बात जानकर यमराज ने सत्यवान के प्राणो को अपने पाश से स्वतंत्र कर दिया । सावित्री सत्यवान के प्राण को लेकर वट वृक्ष के नीचे पहुँची जहाँ सत्यवान के प्राण को लेकर वट वृक्ष के नीचे पहुँची जहाँ सत्यवान का मृत शरीर रखा था । सावित्री ने वट वृक्ष की परिक्रमा की तो सत्यवान जीवित हो उठा । प्रसन्नचित सावित्री अपने सास-श्वसुर के पास पहुँची तो उन्हे नेत्र ज्योती प्राप्त हो गई इसके बाद उनका खोया हुआ राज्य भी उन्हे मिल गया आगे चलकर सावित्री सौ पुत्रो की माता बनी ।<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg9yqWOq9VF6ntobFkdBEZuXiktJO1CB0TTvZPFk8AplZLyUjRVhT5CkDgw2hcciXxxnQb4sxxQVnWExXllDbhP2_Ka9h6lgW-T2jBVG_IL-QulwUokpA7IQb5BucfRAf99PbebRYldnLo6/s1600/Savitri-and-Satyavan.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg9yqWOq9VF6ntobFkdBEZuXiktJO1CB0TTvZPFk8AplZLyUjRVhT5CkDgw2hcciXxxnQb4sxxQVnWExXllDbhP2_Ka9h6lgW-T2jBVG_IL-QulwUokpA7IQb5BucfRAf99PbebRYldnLo6/s400/Savitri-and-Satyavan.jpg" width="290" /></a></div>
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इस प्रकार सावित्री ने सतीत्व के बल पर न केवल अपने पति को मृत्यु के मुख से छीन लिया बल्कि पतिव्रत धर्म से प्रसन्न कर यमराज से सावित्री ने अपने सास-ससुर की आँखें अच्छी होने के साथ राज्यप्राप्त का वर, पिता को पुत्र-प्राप्ति का वर और स्वयं के लिए पुत्रवती होने के आशीर्वाद भी ले लिया। तथा इस प्रकार चारो दिशाएँ सावित्री के पतिव्रत धर्म के पालन की कीर्ति से गूँज उठी ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="color: #073763; font-size: x-large;">वट सवित्री व्रत पूजा विधि </b></div>
<div style="text-align: justify;">
<hr />
</div>
<div style="text-align: justify;">
<ul>
<li>प्रातःकाल घर की सफाई कर नित्य कर्म से निवृत्त होकर स्नान करें। तत्पश्चात पवित्र जल का पूरे घर में छिड़काव करें।</li>
<li>इसके बाद पूजा के समय बांस की टोकरी में सप्त धान्य भरकर ब्रह्मा की मूर्ति की स्थापना करें तथा ब्रह्मा के वाम पार्श्व में सावित्री की मूर्ति स्थापित करें।</li>
<li>इसी प्रकार दूसरी टोकरी में सत्यवान तथा सावित्री की मूर्तियों की स्थापना करें। इन टोकरियों को वट वृक्ष के नीचे ले जाकर रखें।</li>
<li>इसके बाद ब्रह्मा तथा सावित्री का पूजन करें। फिर निम्न श्लोक से सावित्री को अर्घ्य दें</li>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #990000;">अवैधव्यं च सौभाग्यं देहि त्वं मम सुव्रते।</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #990000;">पुत्रान् पौत्रांश्च सौख्यं च गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते॥</span></b></div>
<li>तत्पश्चात सावित्री तथा सत्यवान की पूजा करके बड़ की जड़ में पानी दें।इसके बाद निम्न श्लोक से वटवृक्ष की प्रार्थना करें </li>
<b><div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #990000;">यथा शाखाप्रशाखाभिर्वृद्धोऽसि त्वं महीतले।</span></b></div>
<span style="color: #990000;"><div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #990000;">तथा पुत्रैश्च पौत्रैश्च सम्पन्नं कुरु मा सदा॥</span></b></div>
</span></b>
<li>पूजा में जल, मौली, रोली, कच्चा सूत, भिगोया हुआ चना, फूल तथा धूप का प्रयोग करें।</li>
<li>जल से वटवृक्ष को सींचकर उसके तने के चारों ओर कच्चा धागा लपेटकर तीन बार परिक्रमा करें।</li>
<li>बड़ के पत्तों के गहने पहनकर वट सावित्री की कथा सुनें।</li>
<li>भीगे हुए चनों का बायना निकालकर, नकद रुपए रखकर सासुजी के चरण-स्पर्श करें।यदि सास वहां न हो तो बायना बनाकर उन तक पहुंचाएं।</li>
<li>वट तथा सावित्री की पूजा के पश्चात प्रतिदिन पान, सिन्दूर तथा कुंमकुंम से सौभाग्यवती स्त्री के पूजन का भी विधान है। यही सौभाग्य पिटारी के नाम से जानी जाती है। सौभाग्यवती स्त्रियों का भी पूजन होता है। कुछ महिलाएं केवल अमावस्या को एक दिन का ही व्रत रखती हैं।</li>
<li>पूजा समाप्ति पर ब्राह्मणों को वस्त्र तथा फल आदि वस्तुएं बांस के पात्र में रखकर दान करें।</li>
<li>अंत में निम्न संकल्प लेकर उपवास रखें </li>
<span style="color: #990000;"><b><div style="text-align: center;">
मम वैधव्यादिसकलदोषपरिहारार्थं ब्रह्मसावित्रीप्रीत्यर्थं </div>
<div style="text-align: center;">
सत्यवत्सावित्रीप्रीत्यर्थं च वटसावित्रीव्रतमहं करिष्ये।</div>
</b></span>
<li> इस व्रत में सावित्री-सत्यवान की पुण्य कथा का श्रवण करें अथवा औरों को सुनाएं। </li>
</ul>
</div>
<div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<hr />
</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
</div>
</div>गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6460435484229472119.post-29238600891296632512017-05-22T00:00:00.000+05:302017-05-04T12:08:20.668+05:30अचला अथवा अपरा एकादशी (ज्येष्ठ कृष्ण एकादशी)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
सनातन धर्म अनुसार ज्येष्ठ मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी को अचला अथवा अपरा एकादशी कहा जाता है । माघ में सूर्य के मकर राशि में होने पर प्रयाग में स्नान, शिवरात्रि में काशी में रहकर व्रत, गया में पिंडदान, वृष राशि में गोदावरी में स्नान, बद्रिकाश्रम में भगवान केदार के दर्शन या सूर्यग्रहण में कुरुक्षेत्र में स्नान और दान के बराबर जो फल मिलता है, वह अपरा एकादशी के मात्र एक व्रत से मिल जाता है। अपरा एकादशी को उपवास करके भगवान वामन की पूजा से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। इसकी कथा सुनने और पढ़ने से सहस्र गोदान का फल मिलता है।एकादशी व्रत का संबंध केवल पाप मुक्ति और मोक्ष प्राप्ति से नहीं है। एकादशी व्रत भौतिक सुख और धन देने वाली भी मानी जाती है। ज्येष्ठ मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी ऐसी ही एकादशी है जिस दिन व्रत रखकर भगवान विष्णु की पूजा करने से अपार धन प्राप्त होता है। यही कारण है कि इस एकादशी को अपरा एकादशी के नाम से जाना जाता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<span id="goog_1613921120"></span><span id="goog_1613921121"></span><br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6fx_npwj61TFLkNuUlIqJaQzAyhYDdBg-sPf_tM95kwIlhUgFyFFOb7O9TesM4vIyefB_FetEoU09NsV_wsuPQNZwbjlyzrI1Ns0jyLEHVDO1DNUGO1QCjbo-sWYr6BiUm65wGdxEzDKo/s1600/lord-vishnu-sitting-on-garuda.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="214" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6fx_npwj61TFLkNuUlIqJaQzAyhYDdBg-sPf_tM95kwIlhUgFyFFOb7O9TesM4vIyefB_FetEoU09NsV_wsuPQNZwbjlyzrI1Ns0jyLEHVDO1DNUGO1QCjbo-sWYr6BiUm65wGdxEzDKo/s320/lord-vishnu-sitting-on-garuda.jpg" width="320" /></a></div>
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अपरा एकादशी का एक अन्य अर्थ यह कि ऐसी ऐसी एकादशी है जिसका पुण्य अपार है। इस एकादशी का व्रत करने से, ऐसे पापों से भी मुक्ति मिल जाती है जिससे व्यक्ति को प्रेत योनी में जाना पड़ सकता है। पद्मपुराण में बताया गया है कि इस एकादशी के व्रत से व्यक्ति को वर्तमान जीवन में चली आ रही आर्थिक परेशानियों से राहत मिलती है। अगले जन्म में व्यक्ति धनवान कुल में जन्म लेता है और अपार धन का उपभोग करता है। शास्त्रों में बताया गया है कि परनिंदा, झूठ, ठगी, छल ऐसे पाप हैं जिनके कारण व्यक्ति को नर्क में जाना पड़ता है। इस एकादशी के व्रत से इन पापों के प्रभाव में कमी आती है और व्यक्ति नर्क की यातना भोगने से बच जाता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b style="color: #073763; font-size: x-large;">अपरा (अचला) एकादशी व्रत कथा</b></div>
<div style="text-align: justify;">
<hr />
</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवन! ज्येष्ठ कृष्ण एकादशी का क्या नाम है तथा उसका माहात्म्य क्या है सो कृपा कर कहिए? </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
भगवान श्रीकृष्ण कहने लगे कि हे राजन! यह एकादशी ‘अचला’ तथा’ अपरा दो नामों से जानी जाती है। पुराणों के अनुसार ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की एकादशी अपरा एकादशी है, क्योंकि यह अपार धन देने वाली है। जो मनुष्य इस व्रत को करते हैं, वे संसार में प्रसिद्ध हो जाते हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
इस दिन भगवान त्रिविक्रम की पूजा की जाती है। अपरा एकादशी के व्रत के प्रभाव से ब्रह्म हत्या, भूत योनि, दूसरे की निंदा आदि के सब पाप दूर हो जाते हैं। इस व्रत के करने से परस्त्री गमन, झूठी गवाही देना, झूठ बोलना, झूठे शास्त्र पढ़ना या बनाना, झूठा ज्योतिषी बनना तथा झूठा वैद्य बनना आदि सब पाप नष्ट हो जाते हैं। जो क्षत्रिय युद्ध से भाग जाए वे नरकगामी होते हैं, परंतु अपरा एकादशी का व्रत करने से वे भी स्वर्ग को प्राप्त होते हैं। जो शिष्य गुरु से शिक्षा ग्रहण करते हैं फिर उनकी निंदा करते हैं वे अवश्य नरक में पड़ते हैं। मगर अपरा एकादशी का व्रत करने से वे भी इस पाप से मुक्त हो जाते हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
जो फल तीनों पुष्कर में कार्तिक पूर्णिमा को स्नान करने से या गंगा तट पर पितरों को पिंडदान करने से प्राप्त होता है, वही अपरा एकादशी का व्रत करने से प्राप्त होता है। मकर के सूर्य में प्रयागराज के स्नान से, शिवरात्रि का व्रत करने से, सिंह राशि के बृहस्पति में गोमती नदी के स्नान से, कुंभ में केदारनाथ के दर्शन या बद्रीनाथ के दर्शन, सूर्यग्रहण में कुरुक्षेत्र के स्नान से, स्वर्णदान करने से अथवा अर्द्ध प्रसूता गौदान से जो फल मिलता है, वही फल अपरा एकादशी के व्रत से मिलता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
यह व्रत पापरूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी है। पापरूपी ईंधन को जलाने के लिए अग्नि, पापरूपी अंधकार को मिटाने के लिए सूर्य के समान, मृगों को मारने के लिए सिंह के समान है। अत: मनुष्य को पापों से डरते हुए इस व्रत को अवश्य करना चाहिए। अपरा एकादशी का व्रत तथा भगवान का पूजन करने से मनुष्य सब पापों से छूटकर विष्णु लोक को जाता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इसकी प्रचलित कथा के अनुसार प्राचीन काल में महीध्वज नामक एक धर्मात्मा राजा था। उसका छोटा भाई वज्रध्वज बड़ा ही क्रूर, अधर्मी तथा अन्यायी था। वह अपने बड़े भाई से द्वेष रखता था। उस पापी ने एक दिन रात्रि में अपने बड़े भाई की हत्या करके उसकी देह को एक जंगली पीपल के नीचे गाड़ दिया। इस अकाल मृत्यु से राजा प्रेतात्मा के रूप में उसी पीपल पर रहने लगा और अनेक उत्पात करने लगा। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
एक दिन अचानक धौम्य नामक ॠषि उधर से गुजरे। उन्होंने प्रेत को देखा और तपोबल से उसके अतीत को जान लिया। अपने तपोबल से प्रेत उत्पात का कारण समझा। ॠषि ने प्रसन्न होकर उस प्रेत को पीपल के पेड़ से उतारा तथा परलोक विद्या का उपदेश दिया। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
दयालु ॠषि ने राजा की प्रेत योनि से मुक्ति के लिए स्वयं ही अपरा (अचला) एकादशी का व्रत किया और उसे अगति से छुड़ाने को उसका पुण्य प्रेत को अर्पित कर दिया। इस पुण्य के प्रभाव से राजा की प्रेत योनि से मुक्ति हो गई। वह ॠषि को धन्यवाद देता हुआ दिव्य देह धारण कर पुष्पक विमान में बैठकर स्वर्ग को चला गया। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
हे राजन! यह अपरा एकादशी की कथा मैंने लोकहित के लिए कही है। इसे पढ़ने अथवा सुनने से मनुष्य सब पापों से छूट जाता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #073763; font-size: large;"><b>व्रत की विधि</b></span></div>
<hr />
<div style="text-align: justify;">
पुराणों में एकादशी के व्रत के विषय में कहा गया है कि व्यक्ति को दशमी के दिन शाम में सूर्यास्त के बाद भोजन नहीं करना चाहिए और रात्रि में भगवान का ध्यान करते हुए सोना चाहिए। एकादशी के दिन सुबह उठकर मन से सभी विकारों को निकाल दें और स्नान करके भगवान विष्णु की पूजा करें। पूजा में तुलसी पत्ता, श्रीखंड चंदन, गंगाजल एवं मौसमी फलों का प्रसाद अर्पित करना चाहिए। व्रत रखने वाले को पूरे दिन परनिंदा, झूठ, छल-कपट से बचना चाहिए। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
जो लोग किसी कारण व्रत नहीं रखते हैं उन्हें एकादशी के दिन चावल का प्रयोग भोजन में नहीं करना चाहिए। इन्हें भी झूठ और परनिंदा से बचना चाहिए। जो व्यक्ति एकादशी के दिन विष्णुसहस्रनाम का पाठ करता है उस पर भगवान विष्णु की विशेष कृपा होती है।</div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6460435484229472119.post-44192056200504175022017-05-08T00:00:00.000+05:302017-05-04T12:02:47.637+05:30नृसिंह जयंती<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
सनातन धर्म में वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को नृसिंह जयंती के रूप में मनाया जाता है। पौराणिक मान्यता एवं धार्मिक ग्रंथों के अनुसार इसी तिथि को भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार लेकर भक्त प्रहलाद की रक्षा करने के लिए तथा दैत्यों का अंत कर धर्म कि रक्षा हेतु दैत्यों के राजा हिरण्यकशिपु का वध किया था। अत: इस कारणवश यह दिन भगवान नृसिंह के प्राकट्य उत्सव या जयंती के रूप में मनाया जाता है. नृसिंह अवतार भगवान विष्णु के प्रमुख अवतारों में से एक है. भगवान श्री नृसिंह शक्ति तथा पराक्रम के प्रमुख देवता हैं । नरसिंह अवतार यानि नर + सिंह ("मानव-सिंह")<span style="background-color: white; color: #252525; font-family: sans-serif; font-size: 14px; line-height: 22.4px;"> </span>रूप<span style="background-color: white; color: #252525; font-family: sans-serif; font-size: 14px; line-height: 22.4px;"> </span> में भगवान विष्णु ने आधा मनुष्य व आधा शेर का शरीर धारण करके दैत्यों के राजा हिरण्यकशिपु का वध किया था. धर्म ग्रंथों में भगवान के इस अवतरण के बारे विस्तार पूर्वक विवरण प्राप्त होता है । </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjmXhcGbfrks-HlrJVV-8v9nxBBvfvbVPI__UYKEpcHYt-G9OsTq_tXJRz2mvqk5mu2s6ALwsIC0JfWefXKFhvaQ9oyvgA6Mt4sSSUny3mtKQCQBlA_Er1isKy5R2O3qZ-O65fAOtbba6pP/s1600/narsingh.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjmXhcGbfrks-HlrJVV-8v9nxBBvfvbVPI__UYKEpcHYt-G9OsTq_tXJRz2mvqk5mu2s6ALwsIC0JfWefXKFhvaQ9oyvgA6Mt4sSSUny3mtKQCQBlA_Er1isKy5R2O3qZ-O65fAOtbba6pP/s400/narsingh.jpg" width="302" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #990000;">ॐ उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम् I</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #990000;">नृसिंहं भीषणं भद्रं मृत्यु मृत्युं नमाम्यहम् II</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #073763; font-size: large;"><b>नृसिंह जयंती कथा </b></span></div>
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<span style="color: #073763; font-size: large;"><b></b></span>
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<div style="text-align: justify;">
प्राचीन काल में कश्यप नामक ऋषि हुए थे, उनकी पत्नी का नाम दिति था। उनके दो पुत्र हुए, जिनमें से एक का नाम 'हरिण्याक्ष' तथा दूसरे का 'हिरण्यकशिपु' था। दोनों बड़े क्रूर थे, एक बार जब हिरण्याक्ष पृथ्वी को रसातल में ले गया तब भगवान ने वराह अवतार लेकर उस राक्षस का वध किया. और पृथिवी को रसातल से बाहर ले आये जब उसके भाई हिरण्यकश्यपु को यह पता चला तो वह बहुत क्रोधित हुआ. और वह भगवान विष्णु से द्वेष करने लगा. उसे पता था की विष्णु भगवान बहुत बलशाली है इसलिए उसने उन्हें हराने के लिए ब्रह्मा जी की तपस्या शुरू कर दी.और बहुत बरसो तक तपस्या करता रहा. </div>
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<br /></div>
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उधर इंद्र ने हिरण्याकश्यपु से बदला लेने के लिए उसकी पत्नी कयादु को उसके महलों से उठाकर लाया,जब वह रास्ते में था. तो नारद जी ने रोका और कहा- कि इंद्र ये तुम क्या कर रहे हो? किसी की पत्नी का इस तरह उसके पीछे हरण करना सही नहीं है, और नारदजी कयादु को लेकर अपने आश्रम में चले गए.कयादु आश्रम में रहने लगी,कयादु उस समय गर्भवती थी. नारदजी ने कहा- जब तक तुम्हारे पति तपस्या से वापस नहीं आ जाते तब तक तुम आश्रम में रहो, आश्रम में रोज श्री हरि की कथा होती, हरि नाम का संकीर्तन होता, कयादु बहुत ध्यान से कथा सुनती, कीर्तन करती, उनका सारा समय इसी प्रकार से बीतेने लगा,समय बीतने पर कयादु ने एक बेटे को जन्म दिया नारद जी ने बेटे का नाम "प्रहलाद" रखा, प्रहलाद को जन्म से पहले ही सत्संग मिला था,अपने माँ के गर्भ में ही भगवान से प्रीति हो गई थी, इसलिए पाँच वर्ष की उम्र में ही उन्हे बहुत ज्ञान था, श्री हरि के भक्त थे, दिन हो या रात बस उन्हें केवल भगवान की भक्ति से ही काम था.</div>
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<br /></div>
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उधर हिरण्याकश्यपु के तप से ब्रम्हा जी प्रसन्न हो गए, और उसे वरदान देने के लिए प्रकट हो गए,हिरण्याकश्यपु ने अमरता का वरदान माँगा. ब्राम्हा जी ने कहा- दुनिया में अमर कोई भी नहीं हो सकता, क्योकि जन्म लेने वाले की मृत्यु निश्चित है,तब हिरण्याकश्यपु ने कहा - तो ठीक है ब्रम्हा जी मुझे वरदान दीजियेगा, कि में न दिन में मरू, न रात में, न सुबह मरू न शाम को, न आकाश में मरू, न धरती पर, न किसी अस्त्र से मरू, न शस्त्र से, न नर से मरू, न पशु-पंछी से, देव से मरू, न दानव से, न बारह महीनों में किसी में मरू. ब्रम्हा जी ने वरदान दे दिया.</div>
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<br /></div>
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हिरण्याकश्यपु अपने को अमर समझ कर अपने महलो में आ गया और सारे राज्य में श्री हरि की पूजा बंद कर दी,और स्वंय की पूजा कराने लगा, पर उनके अपने महलों में ही हरि भक्त प्रहलाद जी थे जब हिरण्यकश्यपु को पता चला तो उसने बहुत प्रकार से प्रहलाद को समझाया पर वे नहीं माने.</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
एक दिन कयादु पति से बोली- प्रहलाद अब पाँच वर्ष के हो गये है,में देखती हूँ ,कभी तो रोते थे,कभी हँसते थे,कभी नाचते है, कभी ताली बजाते, कभी गाते थे.अब उन्हें पढने के लिए पाठशाला भेजना चाहिए, हिरण्याकश्यपु ने तुरंत गुरू शुक्राचार्य के पुत्र संडा और आमर्क को के पास प्रहलाद को राक्षसी विद्या पढ़ने के लिए पाठशाला में भेज दिया, पर गुरू जी जो भी पढ़ाते उसकी जगह हरि नाम का कीर्तन करते और हरि नाम का ही उपदेश करते, जब संडा और आमर्क उन्हें समझाते तो उन्हें भी हरि नाम कि महिमा बताते,इससे परेशान होकर उन्होंने प्रहलाद को एक कमरे में बंदकर दिया.</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
एक दिन जब वे दोनों किसी काम से बाहर गए तो बाकि के बच्चों ने प्रहलाद को निकाल कर कहा - कि हमारे साथ खेलो, प्रहलाद जी ने कहा- में तो केवल एक ही खेल जानता हूँ तुम सब भी मेरे साथ खेलो, सब बोले - कौन सा खेल?प्रहलाद जी ने कहा- मेरे गुरु का खेल, हरि कीर्तन, कुछ ही समय में सारे बच्चे भी हरि कीर्तन करने लगे. जब संडा और आमर्क वापस आये और सारे बच्चे भी हरि कीर्तन करते देखा तो उन्हें बहुत गुस्सा आया और वे प्रहलाद हिरण्याकश्यपु के पास ले गए और कहा - कि हम इसे नहीं पढ़ा सकते. और दोनों वापस चले गए.</div>
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<br /></div>
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हिरण्याकश्यपु ने पूछा- प्रहलाद तुम इतने दिनों पाठशाला में रहे, तुमने क्या सीखा हमें बताओ!प्रहलाद जी ने कहा- पिताजी मेरे गुरुदेव ने जो मुझे सिखाया वो बताऊ या मेने जो सीखा वो बताऊ?हिरण्याकश्यपु ने कहा- बेटा जो तुमने अपने मन से सीखा है वो बताओ?</div>
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<br /></div>
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प्रहलाद जी ने कहा - पिताजी ! "इस दुनिया में करोडो लोग जन्म लेते है और मर जाते है. सब को अपने-अपनेकर्मो के हिसाब से फल मिलता है, अच्छे कर्मो से स्वर्ग, बुरे कर्मो से नरक मिलता है. जब अच्छे-बुरे कर्म खत्म हो जाते है, तो वापस इसी पृथ्वी पर आना पड़ता है. हर एक प्राणी इसी प्रकार चौरासी लाख योनियों में भटकता रहता हुआ अपने-अपने कर्मो को भोगता है,यहाँ कोई किसी का अपना नहीं, माता-पिता, भाई-बंधू,पत्नी-पुत्र, सभी एक झूठा सपना है. सगे तो केवल नारायण है कोई कहता है में सुखी हूँ, कोई कहता है- में दुखी हूँ पर वास्तव में व्यक्ति का सबसे बड़ा सुख केवल श्री हरि का नाम है.ये दो अक्षर का शब्द “हरि”में ही जीव का कल्याण है. उनके रूप का ही दिन-रात चिन्तन करने में ही इस निष्सार संसार से उद्धार है इसलिए प्रेम से कहिये-"जय श्री हरि,जय श्री हरि"</div>
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जो प्रह्लाद के मुख से अपने शत्रु का नाम सुना तो क्रोध में भर कर.हिरण्याकश्यपु ने कहा- अभी के अभी मेरे शत्रु का नाम छोड़ दे, नहीं तो अपने प्राण छोड़ना पड़ेगे.प्रहलाद जी ने कहा- पिता जी! में अपने प्राण छोड़ दूँगा, पर श्री हरि का नाम नहीं छोड़ सकता. हिरण्याकश्यपु ने जब प्रहलाद की बाते सुनी तो तुरंत अपने सैनिको को बुलाया और प्रहलाद को मारने का आदेश दिया. सैनिको ने प्रहलाद को पहाड की चोटी से नीचे गिराया, जैसे ही प्रहलाद नीचे गिरे स्वयं भगवान ने अपने हाथो में झेल लिया, सर्पो से भारी कोठारी में बंद कर दिया,पर सर्पो ने कुछ भी नहीं किया, हाथी के पैर के नीचे कुचलवाया,पर हाथी ने कुचले के वजह अपने ऊपर बैठा लिया खौलते तेल के कड़ाई में गिराया, तो तेल तुरंत फूल बन गए, जहर दिया, होलिका आग में लेकर बैठी, तो होलिया ही आग में जल गई पर प्रहलाद का कुछ भी नहीं हुआ,इन सब से प्रहलाद को कुछ भी नहीं हुआ.</div>
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<br /></div>
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हिरण्याकश्यपु ने अपनी तलवार निकाल ली और बोला- प्रहलाद अब मरने के लिए तैयार हो जा! बताओ कहा है तेरा विष्णु, इस तलवार में तेरा काल है, क्या इसमे में भी तेरा विष्णु है. प्रहलाद जी ने कहा- पिताजी! "मो मै तो मै, खडग खम्ब मै ,जहाँ देखो तहाँ राम" इस तलवार में, धरती में, आकाश में, इस पृथ्वी के कण-कण में श्री हरि है, पास लगे खम्बे को देखकर, हिरण्याकश्यपु ने कहा- क्या इस खम्बे में भी तेरा भगवान है?</div>
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प्रहलाद जी ने कहा- जी! पिताजी,इस खम्बे में भी मेरा भगवान है झट हिरण्याकश्यपु ने तलवार से उस खम्बे पर प्रहार किया, खम्बे के टुकड़े-टुकड़े हो गये और खम्बे के बीचो-बीच से झूलता हुआ सिहांसन प्रकट हुआ और नरसिंह भगवान प्रकट हो गए,जिनका मुँख तो सिंह के समान था ,और शरीर नर के समान है,बड़े-बड़े नख थे, क्रोध से आँखे लाल-लाल हो रही थी झट भगवान हिरण्याकश्यपु पर लपक पड़े दोनों में युद्ध होने लगा.</div>
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भगवान ने हिरण्याकश्यपु की नस-नस ढीली कर दी,अंत में भगवान ने देहलीज पर बैठकर, हिरण्याकश्यपु को अपनी जंघाओं पर लिटा कर अपने नख से छाती चीरकर आँतो को निकालकर अपने गले में डाल ली, तभी आकाशवाणी हुई, हे हिरण्याकश्यपु इस समय न दिन है न रात, संध्या का समय है, न आकाश है न धरती है, भगवान अपनी जंघाओं में लिए है, न किसी अस्त्र से, न किसी शस्त्र से, अपने नख से मार रहे है, न नर है न पशु-पंछी, नरर्सिंह है, देव है न दानव, बारह महीनों में कोई महीना नहीं, तेरहवा पुरुषोतम महीना है.</div>
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<br /></div>
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इस तरह भगवान ने उसका प्राणान्तं कर दिया. सारे देवता भगवान की स्तुति करने लगे. भगवान बहुत क्रोधित हुए और उनके मुख से आग निकलने लगी , उनका गुस्सा किसी भी तरह शांत नहीं हुआ, स्वयं लक्ष्मी जी भी उन्हें शांत नहीं कर सकी सबको समझ में नहीं आ रहा था कि भगवान शांत क्यों नहीं हो रहे, अंत मे सबने प्रह्लाद जी को आगे कर दिया, मानो बता रहे हो जिसने मेरे लिए इतने कष्ट सहे,जिसके लिए मै आया,आप सब देवताओ ने उसे तो पीछे कर दिया और आप सब मेरी स्तुति करने लगे इस लिए भगवान का क्रोध कम होने के वजह और बढ़ गया,</div>
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भगवानसिहांसन पर बैठे है, प्रह्लाद जी एक-एक सीढी चढ रहे है, और भगवान की स्तुति करते जा रहे है. जैसे-जैसे प्रह्लाद जी आगे बढ रहे है वैसे-वैसे भगवान शान्तं होते जा रहे है, प्रह्लाद जी को अपनी गोदी मे बैठाकर प्यार से जीभ से चाटने लगे मानो कह हो प्रह्लाद मुझे आने मे देर हो गई. और तेरे पिता हिरण्नायाकश्यपु ने मेरे कारण तुम्हे बहुत कष्ट दिए मुझे माँफ कर दो.</div>
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भगवान ने कहा- प्रह्लाद मुझसे कुछ माँग लो,</div>
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प्रह्लाद जी ने कहा- भगवान मुझे इस संसार कि कोई भी वस्तु नहीं चाहिए,केवल आपकी भक्ति ही चाहिए है. भगवान ने कहा-प्रह्लाद भक्ति तो मेंने तुम्हे दे ही दी पर इस के साथ मे तुम्हें कुछ देना चाहता हूँ,</div>
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प्रह्लाद जी ने कहा -प्रभु यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहते है, तो प्रभु मेरे पिता कि सद्गति हो. भगवान ने कहा- प्रह्लाद तुम अपने पिता की बात करते हो, मेने तो आज से तुम्हारी इक्कीस पीढिंया ही तार दी. इस तरह भगवान प्रह्लाद को दर्शन दे कर अपने लोक को गये, प्रहलाद ने अनेको वर्षों तक राज्य किया.</div>
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यह कथा इस बात को सूचित करती है कि यदि ईश्वर की भक्ति के साथ विश्वास भी हो (जैसा कि विपरीत परिस्थितियों के बीच भी प्रह्लाद ने दिखाया), तो भगवान की कृपा अवश्य प्राप्त होती है। संकट की घड़ी में भगवान को पुकारना ही पर्याप्त नहीं है, मन में यह दृढ़ विश्वास भी होना चाहिए कि भगवान आपकी रक्षा हेतु आएंगे।</div>
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जहां हिरण्यकशिपु बुराई एवं अहंकार का प्रतीक है, वहीं प्रह्लाद आस्था एवं भक्ति के प्रतीक के रूप में उभरते हैं। साथ ही स्वयं भगवान नृसिंह भक्त के प्रति प्रेम के प्रतीक हैं।</div>
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<div style="text-align: justify;">
भगवान का यह वचन है की मेरी भक्ति करने वाला प्राणी किसी भी जाति या कुल का क्यों न हो, मैं बिना किसी भेदभाव के उसकी रक्षा करता हूं।</div>
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<b><span style="color: #073763; font-size: large;">भगवान नृसिंह जयंती पूजा | Worship of Lord Narasimha</span></b></div>
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<div style="text-align: justify;">
नृसिंह जयंती के दिन व्रत-उपवास एवं पुजा अर्चना कि जाती है इस दिन प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान आदि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए तथा भगवान नृसिंह की विधी विधान के साथ पूजा अर्चना करें. भगवान नृसिंह तथा लक्ष्मीजी की मूर्ति स्थापित करना चाहिए तत्पश्चात वेदमंत्रों से इनकी प्राण-प्रतिष्ठा कर षोडशोपचार से पूजन करना चाहिए । भगवान नरसिंह जी की पूजा के लिए फल, पुष्प, पंचमेवा, कुमकुम केसर, नारियल, अक्षत व पीताम्बर रखें. गंगाजल, काले तिल, पञ्च गव्य, व हवन सामग्री का पूजन में उपयोग करें.</div>
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<div style="text-align: justify;">
भगवान नरसिंह को प्रसन्न करने के लिए उनके नरसिंह गायत्री मंत्र का जाप करें. पूजा पश्चात एकांत में कुश के आसन पर बैठकर रुद्राक्ष की माला से इस नृसिंह भगवान जी के मंत्र का जप करना चाहिए. इस दिन व्रती को सामर्थ्य अनुसार तिल, स्वर्ण तथा वस्त्रादि का दान देना चाहिए. इस व्रत करने वाला व्यक्ति लौकिक दुःखों से मुक्त हो जाता है भगवान नृसिंह अपने भक्त की रक्षा करते हैं व उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं.</div>
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गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6460435484229472119.post-63539969180445019692017-05-05T00:00:00.000+05:302017-05-04T12:03:31.800+05:30मोहिनी एकादशी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
सनातन धर्म के अनुसार वैशाख माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को मोहिनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। जिस प्रकार कार्तिक के समान वैशाख मास उत्तम माना गया है उसी प्रकार वैशाख मास की यह एकादशी भी उत्तम कही गयी है। इसका कारण यह है कि संसार में सभी प्रकार के पापों का कारण मोह माना गया है। विधि विधान पूर्वक इस एकादशी का व्रत रखने से मोह का बंधन ढ़ीला होता जाता है और मनुष्य ईश्वर का सानिध्य प्राप्त कर लेता है। इससे मृत्यु के बाद नर्क की कठिन यातनाओं का दर्द नहीं सहना पड़ता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<div>
<br /></div>
<div>
मोहिनी एकादशी के विषय में मान्यता है कि समुद्र मंथन के बाद जब अमृत प्राप्ति को लेकर देव और दानवों के बीच विवाद छिड़ गया तब भगवान विष्णु अति सुंदर नारी रूप धारण करके देवता और दानवों के बीच पहुंच गये। इनके रूप से मोहित होकर दानवों ने अमृत का कलश इन्हें सौंप दिया। मोहिनी रूप धारण किये हुए भगवान विष्णु ने सारा अमृत देवताओं को पिला दिया। इससे देवता अमर हो गये। जिस दिन भगवान विष्णु मोहिनी रूप में प्रकट हुए थे उस दिन एकादशी तिथि थी। भगवान विष्णु के इसी मोहिनी रूप की पूजा मोहिनी एकादशी के दिन की जाती है। </div>
<div>
<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhHXNBPveGg6umxvLuKQT-nYmemUtNDBkYBEqFiou2QqVFrQWm3HepRsrEeJb2f3PxREs9-BQFvKmoNPrpikwcxp42zWO4DR6343vsHqS8H-M8Z2D74lDKTCFb3s27-PkOcNEmrgCwrhI7V/s1600/mohini+ekadashi.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhHXNBPveGg6umxvLuKQT-nYmemUtNDBkYBEqFiou2QqVFrQWm3HepRsrEeJb2f3PxREs9-BQFvKmoNPrpikwcxp42zWO4DR6343vsHqS8H-M8Z2D74lDKTCFb3s27-PkOcNEmrgCwrhI7V/s400/mohini+ekadashi.jpg" width="266" /></a></div>
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मोहिनी एकादशी के विषय में शास्त्र कहते है कि, त्रेता युग में जब भगवान विष्णु रामावतार लेकर पृथ्वी पर आये तब इन्होंने भी गुरू वशिष्ठ मुनि से इस एकादशी के विषय में ज्ञान प्राप्त किया। संसार को इस एकादशी का महत्व समझाने के लिए भगवान राम ने स्वयं भी यह एकादशी व्रत किया। द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण ने पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर को इस व्रत को करने की सलाह दी थी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
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पद्मपुराण के अनुसार इस एकादशी के बारें में श्री कृष्ण ने कहा है कि इस व्रत को करने से लोक और परलोक में सौभाग्य की प्राप्ति होती है। साथ ही सभी प्रकार के पापों का नाश होता है। साथ ही माना जाता है कि इस व्रत को करने से 10 हजार सालों की तपस्या के बराबर फल मिलता है।</div>
<div>
<br /></div>
<div>
<div>
स्कंद पुराण के अनुसार मोहिनी एकादशी के दिन समुद्र मंथन में निकले अमृत का बंटवारा हुआ था। स्कंद पुराण के अवंतिका खंड में शिप्रा को अमृतदायिनी, पुण्यदायिनी कहा गया। अत: मोहिनी एकादशी पर शिप्रा में अमृत महोत्सव का आयोजन किया जाता है। इसलिए कहते हैं - </div>
<div>
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #990000;">तत सोमवती शिप्रा विख्याता यति पुण्यदा पवित्राय...। </span></b></div>
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<br /></div>
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अवंतिका खंड के अनुसार मोहिनी रूपधारी भगवान विष्णु ने अवंतिका नगरी में अमृत वितरण किया था। देवासुर संग्राम के दौरान मोहिनी रूप रखकर राक्षकों को चकमा दिया और देवताओं को अमृत पान करवाया। यह दिन देवासुर संग्राम का समापन दिन भी माना जाता है।</div>
</div>
</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वैशाख शुक्ल एकादशी यानी मोहिनी एकादशी पर भगवान विष्णु की आराधना करने से जहां सुख-समृद्धि बढ़ती है वहीं शाश्वत शांति भी प्राप्त होती है। संसार में आकर मनुष्य केवल प्रारब्ध का भोग ही नहीं भोगता अपितु वर्तमान को भक्ति और आराधना से जोड़कर सुखद भविष्य का निर्माण भी करता है। एकादशी व्रत का महात्म्य भी हमें इसी बात की ओर संकेत करता है।एकादशी व्रत बहुत सावधानी का है। इसमें चावल वर्जित हैं। मोहिनी एकादशी के अवसर पर श्रद्धालुओं को सुबह से ही पूजा-पाठ, प्रातःकालीन आरती, सत्संग, एकादशी महात्म्य की कथा, प्रवचन सुनना चाहिए। साथ ही भगवान विष्णु को चंदन और जौ चढ़ाने चाहिए क्योंकि यह व्रत परम सात्विकता और आचरण की शुद्धि का व्रत होता है। अत: हमें अपने जीवन काल में धर्मानुकूल आचरण करते हुए मोक्ष प्राप्ति का मार्ग ढूंढना चाहिए। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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<span style="color: #073763; font-size: large;"><b>मोहिनी एकादशी कथा</b></span></div>
<hr />
<div style="text-align: justify;">
युधिष्ठिर ने पूछा : जनार्दन ! वैशाख मास के शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है? उसका क्या फल होता है? उसके लिए कौन सी विधि है?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
भगवान श्रीकृष्ण बोले : धर्मराज ! पूर्वकाल में परम बुद्धिमान श्रीरामचन्द्रजी ने महर्षि वशिष्ठजी से यही बात पूछी थी, जिसे आज तुम मुझसे पूछ रहे हो ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
श्रीराम ने कहा : भगवन् ! जो समस्त पापों का क्षय तथा सब प्रकार के दु:खों का निवारण करनेवाला, व्रतों में उत्तम व्रत हो, उसे मैं सुनना चाहता हूँ ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वशिष्ठजी बोले : श्रीराम ! तुमने बहुत उत्तम बात पूछी है । मनुष्य तुम्हारा नाम लेने से ही सब पापों से शुद्ध हो जाता है । तथापि लोगों के हित की इच्छा से मैं पवित्रों में पवित्र उत्तम व्रत का वर्णन करुँगा । वैशाख मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी होती है, उसका नाम ‘मोहिनी’ है । वह सब पापों को हरनेवाली और उत्तम है । उसके व्रत के प्रभाव से मनुष्य मोहजाल तथा पातक समूह से छुटकारा पा जाते हैं ।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
सरस्वती नदी के रमणीय तट पर भद्रावती नाम की सुन्दर नगरी है । वहाँ धृतिमान नामक राजा, जो चन्द्रवंश में उत्पन्न और सत्यप्रतिज्ञ थे, राज्य करते थे । उसी नगर में एक वैश्य रहता था, जो धन धान्य से परिपूर्ण और समृद्धशाली था । उसका नाम था धनपाल । वह सदा पुण्यकर्म में ही लगा रहता था । दूसरों के लिए पौसला (प्याऊ), कुआँ, मठ, बगीचा, पोखरा और घर बनवाया करता था । भगवान विष्णु की भक्ति में उसका हार्दिक अनुराग था । वह सदा शान्त रहता था । उसके पाँच पुत्र थे : सुमना, धुतिमान, मेघावी, सुकृत तथा धृष्टबुद्धि । धृष्टबुद्धि पाँचवाँ था । वह सदा बड़े बड़े पापों में ही संलग्न रहता था । जुए आदि दुर्व्यसनों में उसकी बड़ी आसक्ति थी । वह वेश्याओं से मिलने के लिए लालायित रहता था । उसकी बुद्धि न तो देवताओं के पूजन में लगती थी और न पितरों तथा ब्राह्मणों के सत्कार में । वह दुष्टात्मा अन्याय के मार्ग पर चलकर पिता का धन बरबाद किया करता था। एक दिन वह वेश्या के गले में बाँह डाले चौराहे पर घूमता देखा गया । तब पिता ने उसे घर से निकाल दिया तथा बन्धु बान्धवों ने भी उसका परित्याग कर दिया । अब वह दिन रात दु:ख और शोक में डूबा तथा कष्ट पर कष्ट उठाता हुआ इधर उधर भटकने लगा । एक दिन किसी पुण्य के उदय होने से वह महर्षि कौण्डिन्य के आश्रम पर जा पहुँचा । वैशाख का महीना था । तपोधन कौण्डिन्य गंगाजी में स्नान करके आये थे । धृष्टबुद्धि शोक के भार से पीड़ित हो मुनिवर कौण्डिन्य के पास गया और हाथ जोड़ सामने खड़ा होकर बोला : ‘ब्रह्मन् ! द्विजश्रेष्ठ ! मुझ पर दया करके कोई ऐसा व्रत बताइये, जिसके पुण्य के प्रभाव से मेरी मुक्ति हो ।’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
कौण्डिन्य बोले : वैशाख के शुक्लपक्ष में ‘मोहिनी’ नाम से प्रसिद्ध एकादशी का व्रत करो । ‘मोहिनी’ को उपवास करने पर प्राणियों के अनेक जन्मों के किये हुए मेरु पर्वत जैसे महापाप भी नष्ट हो जाते हैं |’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वशिष्ठजी कहते है : श्रीरामचन्द्रजी ! मुनि का यह वचन सुनकर धृष्टबुद्धि का चित्त प्रसन्न हो गया । उसने कौण्डिन्य के उपदेश से विधिपूर्वक ‘मोहिनी एकादशी’ का व्रत किया । नृपश्रेष्ठ ! इस व्रत के करने से वह निष्पाप हो गया और दिव्य देह धारण कर गरुड़ पर आरुढ़ हो सब प्रकार के उपद्रवों से रहित श्रीविष्णुधाम को चला गया । इस प्रकार यह ‘मोहिनी’ का व्रत बहुत उत्तम है । इसके पढ़ने और सुनने से सहस्र गौदान का फल मिलता है ।’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #073763; font-size: large;">व्रत विधि</span></b></div>
<hr />
<div style="text-align: justify;">
हिंदू धर्म के शास्त्रों के अनुसार जो इंसान विधि-विधान से एकादशी का व्रत और रात्रि जागरण करता है उसे वर्षों तक तपस्या करने का पुण्य प्राप्त होता है। इसलिए इस व्रत को जरुर करना चाहिए। इस व्रत से कई पीढियों द्वारा किए गए पाप भी दूर हो जाते है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इस एकादशी के दिन जो व्यक्ति व्रत रखता है। वह इस दिन प्रात: स्नान करके भगवान को स्मरण करते हुए विधि के साथ पूजा करें और उनकी आरती करनी चाहिए साथ ही उन्हें भोग लगाना चाहिए। इस दिन भगवान नारायण की पूजा का विशेष महत्व होता है। साथ ही ब्राह्मणों तथा गरीबों को भोजन या फिर दान देना चाहिए। यह व्रत बहुत ही फलदायी होता है। इस व्रत को करने से समस्त कामों में आपको सफलता मिलती है। </div>
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जो व्यक्ति मोहिनी एकादशी का व्रत करे, उसे एक दिन पूर्व अर्थात दशमी तिथि की रात्रि से ही व्रत के नियमों का पालन करना चाहिए। व्रत के दिन एकादशी तिथि में व्रती को सुबह सूर्योदय से पहले उठना चाहिए और नित्य कर्म कर शुद्ध जल से स्नान करना चाहिए। स्नान के लिये किसी पवित्र नदी या सरोवर का जल मिलना श्रेष्ठ होता है। अगर यह संभव न हों तो घर में ही जल से स्नान करना चाहिए। स्नान करने के लिये कुश और तिल के लेप का प्रयोग करना चाहिए। स्नान करने के बाद साफ वस्त्र धारण करने चाहिए। इस दिन भगवान विष्णु के साथ-साथ भगवान श्रीराम की पूजा भी की जाती है। व्रत का संकल्प लेने के बाद ही इस व्रत को शुरु किया जाता है। संकल्प लेने के लिये इन दोनों देवों के समक्ष संकल्प लिया जाता है। देवों का पूजन करने के लिये कलश स्थापना कर, उसके ऊपर लाल रंग का वस्त्र बांध कर पहले कलश का पूजन किया जाता है। इसके बाद इसके ऊपर भगवान कि तस्वीर या प्रतिमा रखें तत्पश्चात भगवान की प्रतिमा को स्नानादि से शुद्ध कर उत्तम वस्त्र पहनाना चाहिए। फिर धूप, दीपक से आरती उतारनी चाहिए और मीठे फलों का भोग लगाना चाहिए। इसके बाद प्रसाद वितरीत कर ब्राह्मणों को भोजन तथा दान दक्षिणा देनी चाहिए। रात्रि में भगवान का कीर्तन करते हुए मूर्ति के समीप ही शयन करना चाहिए।</div>
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इस एकादशी का व्रत रखने वाले को अपना मन साफ रखना चाहिए। व्रत रखने वाले को स्वयं तुलसी पत्ता नहीं तोड़ना चाहिए।किसी के प्रति मन में द्वेष की भावना नहीं लाएं और न किसी की निंदा करें। व्रत रखने वाले को पूरे दिन निराहार रहना चाहिए। शाम में पूजा के बाद चाहें तो फलाहार कर सकते हैं। एकादशी के दिन रात्रि जागरण का बड़ा महत्व है। संभव हो तो रात में जगकर भगवान का भजन कीर्तन करें। अगले दिन यानी द्वादशी तिथि को ब्राह्मण भोजन करवाने के बाद स्वयं भोजन करें।</div>
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गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6460435484229472119.post-3151486698943185802017-02-24T14:26:00.000+05:302017-02-24T14:29:46.283+05:30महाशिवरात्रि<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को मनाया जाने वाला महाशिवरात्रि का पर्व विश्व भर के हिन्दुओं का एक बड़ा पर्व है| रात में पड़ने वाली चतुर्दशी और अमावस्या को महाशिवरात्रि मनाने का विधान है। इसका उपवास त्रयोदशी से शुरू होता है। इस प्रकार के व्रत और पूजा पाठ में ऐसी पौराणिक मान्यता है कि सकल मनोरथ सिद्ध होंगे और भगवान शिव की कृपा बनी रहेगी|<br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhLOO6GxDZo1_3TP38Itm0BKHHn-jDpHUMNP9DLEvbobcWFl3wq0t07U_3DyQxPMUpIODvOigeEatRbzgvyu-RavkxLIS4aDE5aKaVcLG191iN6YMXZGSdOiiMDpOxpf1GoX8jUELCnKe_k/s1600/Screenshot_2017-02-24-01-04-40-188.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhLOO6GxDZo1_3TP38Itm0BKHHn-jDpHUMNP9DLEvbobcWFl3wq0t07U_3DyQxPMUpIODvOigeEatRbzgvyu-RavkxLIS4aDE5aKaVcLG191iN6YMXZGSdOiiMDpOxpf1GoX8jUELCnKe_k/s320/Screenshot_2017-02-24-01-04-40-188.jpg" width="180" /></a></div>
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मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव ज्योतिर्लिंग रूप में प्रकट हुए थे| इस संबंध में एक पौराणिक कथा के अनुसार- सृष्टि के पालक भगवान विष्णु की नाभि से निकले कमल पर सृष्टि के सर्जक ब्रह्माजी प्रकट हुए| दोनों में यह विवाद हुआ कि हम दोनों में श्रेष्ठ कौन है? यह विवाद जब बढऩे लगा तो तभी वहां एक अद्भुत ज्योतिर्लिंग प्रकट हुआ| उस ज्योतिर्लिंग को वे समझ नहीं सके और उन्होंने उसके छोर का पता लगाने का प्रयास किया, परंतु सफल नहीं हो पाए| दोनों देवताओं के निराश हो जाने पर उस ज्योतिर्लिंग ने अपना परिचय देते हुए कहां कि मैं शिव हूं| मैं ही आप दोनों को उत्पन्न किया है|</div>
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तब विष्णु तथा ब्रह्मा ने भगवान शिव की महत्ता को स्वीकार किया और उसी दिन से शिवलिंग की पूजा की जाने लगी| शिवलिंग का आकार दीपक की लौ की तरह लंबाकार है इसलिए इसे ज्योतिर्लिंग कहा जाता है| एक मान्यता यह भी है कि कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को भगवान शिव और मां पार्वती का विवाह हुआ था। दोनों ने इस दिन गृहस्थ आश्रम में प्रवेश किया था, इसलिए महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है|</div>
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एक मान्यता है भी है महाशिवरात्रि के दिन ही माता सती और भगवान भोलेनाथ का मिलन हुआ था| भगवान शंकर संहार शक्ति और तमोगुण के अधिष्ठाता और चतुर्दशी तिथि के स्वामी हैं अथवा शिव की तिथि चतुर्दशी है परंतु फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को अर्द्ध रात्रि में 'शिवलिंगतयोद्भूत: कोटिसूर्यसमप्रभ:'- ईशान संहिता के इस वचन के अनुसार ज्योतिर्लिग का प्रादुर्भाव होने से यह पर्व महाश्रि्वरात्रि के नाम से विख्यात हुआ| अत: तमोमयी रात्रि से उनका स्नेह होना स्वाभाविक ही है|</div>
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रात्रि संहारकाल की प्रतिनिधि है ऐसी दशा में शिव का रात्रि प्रिय होना सहज ही हृदयंगम हो जाता है। इनकी अराधना रात्रि एवं सदैव प्रदोषकाल में भी की जाती है। शिवार्चन एवं जागरण ही इस व्रत की विशेषता है। इसमें चार प्रहर में चार बार पूजा का विधान है| विद्या की आकांक्षा करने वाले को शिव पूजन आवश्यक है- 'विद्याकामस्तु गिरिशं'|</div>
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ईशान संहिता में महा शिवरात्रि की महत्ता का उल्लेख इस प्रकार किया गया है-</div>
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॥शिवरात्रि व्रतं नाम सर्वपापं प्रणाशनम्। आचाण्डाल मनुष्याणं भुक्ति मुक्ति प्रदायकं॥</div>
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गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6460435484229472119.post-55632088017888796132016-12-10T11:06:00.001+05:302020-12-25T12:26:07.950+05:30मोक्षदा एकादशी<p dir="ltr">हिन्दू धर्म में मोक्ष को महत्त्वपूर्ण माना गया है। मान्यता है कि मोक्ष प्राप्त किए बिना मनुष्य को बार-बार इस संसार में आना पड़ता है। पद्म पुराण में मोक्ष की चाह रखने वाले प्राणियों के लिए "मोक्षदा एकादशी व्रत" रखने की सलाह दी गई है। यह व्रत मार्गशीर्ष मास की शुक्ल एकादशी को किया जाता है। इस दिन भगवान विष्णु जी की पूजा की जाती है।</p>
<p dir="ltr">मोक्षदा एकादशी के दिन अन्य एकादशियों की तरह ही व्रत करने का विधान है। मोक्षदा एकादशी से एक दिन पहले यानि दशमी के दिन सात्विक भोजन करना चाहिए तथा सोने से पहले भगवान विष्णु का स्मरण करना चाहिए।</p>
<p dir="ltr">मोक्षदा एकादशी के दिन सुबह स्नानादि से निवृत्त होकर पूरे घर में गंगाजल छिड़क कर घर को पवित्र करना चाहिए। इसके बाद भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए। पूजा में तुलसी के पत्तों को अवश्य शामिल करना चाहिए।</p>
<p dir="ltr">पूजा करने बाद विष्णु के अवतारों की कथा का पाठ करना चाहिए। मोक्षदा एकादशी की रात्रि को भगवान श्रीहरि का भजन- कीर्तन करना चाहिए। द्वादशी के दिन पुन: विष्णु की पूजा कर ब्राह्मणों को भोजन करा उन्हें दक्षिणा देकर विदा करना चाहिए। अंत: में परिवार के साथ बैठकर उपवास खोलना चाहिए।</p>
<p dir="ltr">मोक्ष की प्राप्ति के इच्छुक जातकों के लिए हिन्दू धर्म में इस व्रत को सबसे अहम और पुण्यकारी माना जाता है। मान्यता है कि इस व्रत के पुण्य से मनुष्य के समस्त पाप धुल जाते हैं और उसे जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति मिलती है।</p>
<p dir="ltr">मोक्षदा एकादशी व्रत कथा</p>
<p dir="ltr">महाराज युधिष्ठिर ने कहा- हे भगवन! आप तीनों लोकों के स्वामी, सबको सुख देने वाले और जगत के पति हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। हे देव! आप सबके हितैषी हैं अत: मेरे संशय को दूर कर मुझे बताइए कि मार्गशीर्ष एकादशी का क्या नाम है? </p>
<p dir="ltr">उस दिन कौन से देवता का पूजन किया जाता है और उसकी क्या विधि है? कृपया मुझे बताएँ। भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण कहने लगे कि धर्मराज, तुमने बड़ा ही उत्तम प्रश्न किया है। इसके सुनने से तुम्हारा यश संसार में फैलेगा। मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी अनेक पापों को नष्ट करने वाली है। इसका नाम मोक्षदा एकादशी है। </p>
<p dir="ltr">इस दिन दामोदर भगवान की धूप-दीप, नैवेद्य आदि से भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिए। अब इस विषय में मैं एक पुराणों की कथा कहता हूँ। गोकुल नाम के नगर में वैखानस नामक राजा राज्य करता था। उसके राज्य में चारों वेदों के ज्ञाता ब्राह्मण रहते थे। वह राजा अपनी प्रजा का पुत्रवत पालन करता था। एक बार रात्रि में राजा ने एक स्वप्न देखा कि उसके पिता नरक में हैं। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। </p>
<p dir="ltr">प्रात: वह विद्वान ब्राह्मणों के पास गया और अपना स्वप्न सुनाया। कहा- मैंने अपने पिता को नरक में कष्ट उठाते देखा है। उन्होंने मुझसे कहा कि हे पुत्र मैं नरक में पड़ा हूँ। यहाँ से तुम मुझे मुक्त कराओ। जब से मैंने ये वचन सुने हैं तब से मैं बहुत बेचैन हूँ। चित्त में बड़ी अशांति हो रही है। मुझे इस राज्य, धन, पुत्र, स्त्री, हाथी, घोड़े आदि में कुछ भी सुख प्रतीत नहीं होता। क्या करूँ?</p>
<p dir="ltr">राजा ने कहा- हे ब्राह्मण देवताओं! इस दु:ख के कारण मेरा सारा शरीर जल रहा है। अब आप कृपा करके कोई तप, दान, व्रत आदि ऐसा उपाय बताइए जिससे मेरे पिता को मुक्ति मिल जाए। उस पुत्र का जीवन व्यर्थ है जो अपने माता-पिता का उद्धार न कर सके। एक उत्तम पुत्र जो अपने माता-पिता तथा पूर्वजों का उद्धार करता है, वह हजार मुर्ख पुत्रों से अच्छा है। जैसे एक चंद्रमा सारे जगत में प्रकाश कर देता है, परंतु हजारों तारे नहीं कर सकते। ब्राह्मणों ने कहा- हे राजन! यहाँ पास ही भूत, भविष्य, वर्तमान के ज्ञाता पर्वत ऋषि का आश्रम है। आपकी समस्या का हल वे जरूर करेंगे।</p>
<p dir="ltr">ऐसा सुनकर राजा मुनि के आश्रम पर गया। उस आश्रम में अनेक शांत चित्त योगी और मुनि तपस्या कर रहे थे। उसी जगह पर्वत मुनि बैठे थे। राजा ने मुनि को साष्टांग दंडवत किया। मुनि ने राजा से सांगोपांग कुशल पूछी। राजा ने कहा कि महाराज आपकी कृपा से मेरे राज्य में सब कुशल हैं, लेकिन अकस्मात मेरे च्ति में अत्यंत अशांति होने लगी है। ऐसा सुनकर पर्वत मुनि ने आँखें बंद की और भूत विचारने लगे। फिर बोले हे राजन! मैंने योग के बल से तुम्हारे पिता के कुकर्मों को जान लिया है। उन्होंने पूर्व जन्म में कामातुर होकर एक पत्नी को रति दी किंतु सौत के कहने पर दूसरे पत्नी को ऋतुदान माँगने पर भी नहीं दिया। उसी पापकर्म के कारण तुम्हारे पिता को नर्क में जाना पड़ा।</p>
<p dir="ltr">तब राजा ने कहा इसका कोई उपाय बताइए। मुनि बोले- हे राजन! आप मार्गशीर्ष एकादशी का उपवास करें और उस उपवास के पुण्य को अपने पिता को संकल्प कर दें। इसके प्रभाव से आपके पिता की अवश्य नर्क से मुक्ति होगी। मुनि के ये वचन सुनकर राजा महल में आया और मुनि के कहने अनुसार कुटुम्ब सहित मोक्षदा एकादशी का व्रत किया। इसके उपवास का पुण्य उसने पिता को अर्पण कर दिया। इसके प्रभाव से उसके पिता को मुक्ति मिल गई और स्वर्ग में जाते हुए वे पुत्र से कहने लगे- हे पुत्र तेरा कल्याण हो। यह कहकर स्वर्ग चले गए।</p>
<p dir="ltr">मार्गशीर्ष मास की शुक्ल पक्ष की मोक्षदा एकादशी का जो व्रत करते हैं, उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। इस व्रत से बढ़कर मोक्ष देने वाला और कोई व्रत नहीं है। इस कथा को पढ़ने या सुनने से वायपेय यज्ञ का फल मिलता है। यह व्रत मोक्ष देने वाला तथा चिंतामणि के समान सब कामनाएँ पूर्ण करने वाला है।</p>
<p dir="ltr">मोक्षदा एकादशी व्रत विधि :- </p>
<p dir="ltr">इस दिन प्रातः स्नानादि कार्यों से निवृत्त होकर प्रभु श्रीकृष्ण का स्मरण कर पूरे घर में पवित्र जल छिड़कें तथा अपने आवास तथा आसपास के वातावरण को शुद्ध बनाएं। </p>
<p dir="ltr">तत्पश्चात पूजा सामग्री तैयार करें।</p>
<p dir="ltr">तुलसी की मंजरी (तुलसी के पौधे पर पत्तियों के साथ लगने वाला), सुगंधित पदार्थ विशेष रूप से पूजन सामग्री में रखें। </p>
<p dir="ltr">गणेशजी, श्रीकृष्ण और वेदव्यासजी की मूर्ति या तस्वीर सामने रखें। गीता की एक प्रति भी रखें। </p>
<p dir="ltr">इस दिन पूजा में तुलसी की मंजरियां भगवान श्रीगणेश को चढ़ाने का विशेष महत्व है।</p>
<p dir="ltr">चूंकि इसी दिन श्रीकृष्ण ने अर्जुन को रणभूमि में उपदेश दिया था। अतः आज के दिन उपवास रखकर रात्रि में गीता-पाठ करते हुए या गीता प्रवचन सुनते हुए जागरण करने का भी काफी महत्व है। </p>
<p dir="ltr">पूजा-पाठ कर व्रत कथा को सुनें, पश्चात आरती कर प्रसाद बांटें।</p>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6460435484229472119.post-86564536070705285542016-12-10T11:00:00.001+05:302020-12-25T12:26:31.896+05:30गीता जयंती<p dir="ltr">गीता जयंती एक प्रमुख पर्व है हिंदु पौरांणिक ग्रथों में गीता का स्थान सर्वोपरि रहा है.गीता ग्रंथ का प्रादुर्भाव मार्गशीर्ष मास में शुक्लपक्ष की एकादशी को कुरुक्षेत्र में हुआ था. महाभारत समय श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को ज्ञान का मार्ग दिखाते हुए गीता का आगमन होता है. इस ग्रंथ में छोटे-छोटे अठारह अध्यायों में संचित ज्ञान मनुष्यमात्र के लिए बहुमूल्य रहा है.</p>
<p dir="ltr">अर्जुन को गीता का ज्ञान देकर कर्म का महत्व स्थापित किया इस प्रकार अनेक कार्यों को करते हुए एक महान युग परवर्तक के रूप में सभी का मार्ग दर्शन किया.मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की एकादशी को गीता जयंती के साथ साथ मोक्षदा एकादशी भी कहा जाता है. मोक्षदा एकादशी का व्रत करने वाले व्यक्ति को एकादशी के नाम के अनुसार मोक्ष प्राप्ति के योग बनते हैं.</p>
<p dir="ltr">इसी दिन गीता जयन्ती होने से श्रीमदभगवद गीता की सुगन्धित फूलों द्वारा पूजा, कर गीता का पाठ करना चाहिए. विधिपूर्वक गीता व भगवान विष्णु की पूजा करने पर यथा शक्ति दानादि करने से पापों से मुक्ति मिलती है तथा शुभ फलों की प्राप्ति होती है. गीता जयंती के दिन श्री विष्णु जी का पूजन करने से उपवासक को आत्मिक शांति व ज्ञान की प्राप्ति होती है व मोक्ष मार्ग प्रश्स्त होता है.</p>
<p dir="ltr">कर्म की अवधारणा को अभिव्यक्त करती गीता चिरकाल से आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितना तब रही. विचारों को तर्क दृष्टी के द्वारा बहुत ही सरल एवं प्रभावशाली रूप से प्रस्तुत किया गया है संसार के गुढ़ ज्ञान तथा आत्मा के महत्व पर विस्तृत एवं विशद वर्णन प्राप्त होता है.</p>
<p dir="ltr">गीता में अर्जुन के मन में उठने वाले विभिन्न सवालों के रहस्यों को सुलझाते हुए श्री कृष्ण ने उन्हें सही एवं गलत मार्ग का निर्देश प्रदान करते हैं. संसार में मनुष्य कर्मों के बंधन से जुड़ा है और इस आधार पर उसे इन कर्मों के दो पथों में से किसी एक का चयन करना होता है. इसके साथ ही परमात्मा तत्त्व का विशद वर्णन करते हुए अर्जुन की शंकाओं का समाधान करते हैं व गीता का आधार बनते हैं.</p>
<p dir="ltr">गीता जयंती का महत्व </p>
<p dir="ltr">गीता आत्मा एवं परमात्मा के स्वरूप को व्यक्त करती है. कृष्ण के उपदेशों को प्राप्त कर अर्जुन उस परम ज्ञान की प्राप्ति करते हैं जो उनकी समस्त शंकाओं को दूर कर उन्हें कर्म की ओर प्रवृत करने में सहायक होती है. गीता के विचारों से मनुष्य को उचित बोध कि प्राप्ति होती है यह आत्मा तत्व का निर्धारण करता है उसकी प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करता है. आज के समय में इस ज्ञान की प्राप्ति से अनेक विकारों से मुक्त हुआ जा सकता है.</p>
<p dir="ltr">आज जब मनुष्य भोग विलास, भौतिक सुखों, काम वासनाओं में जकडा़ हुआ है और एक दूसरे का अनिष्ट करने में लगा है तब इस ज्ञान का प्रादुर्भाव उसे समस्त अंधकारों से मुक्त कर सकता है क्योंकी जब तक मानव इंद्रियों की दासता में है, भौतिक आकर्षणों से घिरा हुआ है, तथा भय, राग, द्वेष एवं क्रोध से मुक्त नहीं है तब तक उसे शांति एवं मुक्ति का मार्ग प्राप्त नहीं हो सकता.</p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgYN18meYs9V2Y-JVI-WPGmHYKT9v9JuDa7kGVQJZUTb1YJxiGpB48KmNFBQFB9jv3SNfqq0q0dAw-NYnbt-zf8Tr2CSGOgEWDhlZIDKwJl4qaiGies4yfnaKpyL3kh0QyPgE1I1CwtYXGs/s1600/FB_IMG_1481344243459_20161210102505168.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgYN18meYs9V2Y-JVI-WPGmHYKT9v9JuDa7kGVQJZUTb1YJxiGpB48KmNFBQFB9jv3SNfqq0q0dAw-NYnbt-zf8Tr2CSGOgEWDhlZIDKwJl4qaiGies4yfnaKpyL3kh0QyPgE1I1CwtYXGs/s640/FB_IMG_1481344243459_20161210102505168.jpg"> </a> </div>Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6460435484229472119.post-76987518037292302402016-11-24T19:55:00.000+05:302016-11-24T20:51:09.067+05:30 उत्पन्ना एकादशी (मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
सनातन धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक माह में दो एकादशियाँ होती हैं एवं इस तिथि पर भगवान श्री विष्णु जी की पूजा व व्रत करने का विधान है। शास्त्रों में एकादशी का व्रत समस्त प्राणियों के लिए अनिवार्य बताया गया है। मान्यता है कि इस व्रत के प्रभावस्वरूप धर्म एवं मोक्ष रूपी फलों की प्राप्ति होती है. इस व्रत के फलस्वरुप मिलने वाले फल अश्वमेघ यज्ञ, कठिन तपस्या, तीर्थों में स्नान-दान आदि से मिलने वाले फलों से भी अधिक होते है. जो मनुष्य जीवनपर्यन्त एकादशी को उपवास करता है, वह मरणोपरांत वैकुण्ठ जाता है। एकादशी के समान पापनाशक व्रत दूसरा कोई नहीं है। एकादशी-माहात्म्य को सुनने मात्र से सहस्रगोदानोंका पुण्यफलप्राप्त होता है। एकादशी में उपवास करके रात्रि-जागरण करने से व्रती श्रीहरिकी अनुकम्पा का भागी बनता है। </div>
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</div>
<div style="text-align: justify;">
मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को उत्पन्ना एकादशी के नाम से जाना जाता है। एकादशी के व्रतों में उत्पन्ना एकादशी व्रत को मुख्य स्थान प्राप्त है क्योंकि मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष में एकादशी तिथि के ही दिन भगवान श्री हरि विष्णु के शरीर से एकादशी नामक देवी का प्रादुर्भाव हुआ था एवं इस दिन भगवान श्री हरि विष्णु के शरीर से उन देवी के उत्पन्न होने के कारण इस एकादशी का नाम उत्पन्ना एकादशी पड़ा । इस क्रम से जो भी हरि भक्त एकादशी व्रत का अनुष्ठान प्रारंभ करते हैं उनके द्वारा इसी तिथि से एकादशी व्रत शुरू करना उचित रहता है।</div>
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<b><span style="color: #0b5394; font-size: large;"><br /></span></b>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEidr8tfqdoB0B4mQrYx_RSFAGcMVtVVaAOsRqAzZLv7WlO3_tiE7HwGu4qQxLsPoZqP9hDyOsdBMxzyUhoLC49yt7YvQEKbBwaWJ11jHKPecRq-5Uk6RCUb2r_YemgmmaUeO7Wmhdhoi2ev/s1600/%25E0%25A4%2589%25E0%25A4%25A4%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25AA%25E0%25A4%25A8%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25A8%25E0%25A4%25BE+%25E0%25A4%258F%25E0%25A4%2595%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25A6%25E0%25A4%25B6%25E0%25A5%2580.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEidr8tfqdoB0B4mQrYx_RSFAGcMVtVVaAOsRqAzZLv7WlO3_tiE7HwGu4qQxLsPoZqP9hDyOsdBMxzyUhoLC49yt7YvQEKbBwaWJ11jHKPecRq-5Uk6RCUb2r_YemgmmaUeO7Wmhdhoi2ev/s1600/%25E0%25A4%2589%25E0%25A4%25A4%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25AA%25E0%25A4%25A8%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25A8%25E0%25A4%25BE+%25E0%25A4%258F%25E0%25A4%2595%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25A6%25E0%25A4%25B6%25E0%25A5%2580.jpg" /></a></div>
<b><span style="color: #0b5394; font-size: large;"><br /></span></b>
<b><span style="color: #0b5394; font-size: large;"><br /></span></b>
<b><span style="color: #0b5394; font-size: large;"><br /></span></b>
<b><span style="color: #0b5394; font-size: large;">एकादशी </span></b><span style="color: #0b5394; font-size: large;"><b>व्रत विधि</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
सूतजी कहने लगे- हे ऋषियों! इस व्रत का वृत्तांत और उत्पत्ति प्राचीनकाल में भगवान कृष्ण ने अपने परम भक्त युधिष्ठिर से कही थी। वही मैं तुमसे कहता हूँ। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
एक समय युधिष्ठिर ने भगवान से पूछा था कि एकादशी व्रत किस विधि से किया जाता है और उसका क्या फल</div>
<div style="text-align: justify;">
प्राप्त होता है। उपवास के दिन जो क्रिया की जाती है आप कृपा करके मुझसे कहिए। यह वचन सुनकर श्रीकृष्ण </div>
<div style="text-align: justify;">
कहने लगे- हे युधिष्ठिर! मैं तुमसे एकादशी के व्रत का माहात्म्य कहता हूँ। सुनो।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
सर्वप्रथम हेमंत ऋतु में मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी से इस व्रत को प्रारंभ किया जाता है। दशमी को सायंकाल भोजन के बाद अच्छी प्रकार से दातुन करें ताकि अन्न का अंश मुँह में रह न जाए। रात्रि को भोजन कदापि न करें, न अधिक बोलें। एकादशी के दिन प्रात: 4 बजे उठकर सबसे पहले व्रत का संकल्प करें। इसके पश्चात शौच आदि से निवृत्त होकर शुद्ध जल से स्नान करें। व्रत करने वाला चोर, पाखंडी, परस्त्रीगामी, निंदक, मिथ्याभाषी तथा किसी भी प्रकार के पापी से बात न करे।</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
स्नान के पश्चात धूप, दीप, नैवेद्य आदि सोलह चीजों से भगवान का पूजन करें और रात को दीपदान करें। रात्रि में सोना या प्रसंग नहीं करना चाहिए। सारी रात भजन-कीर्तन आदि करना चाहिए। जो कुछ पहले जाने-अनजाने में पाप हो गए हों, उनकी क्षमा माँगनी चाहिए। धर्मात्मा पुरुषों को कृष्ण और शुक्ल दोनों पक्षों की एकादशियों को समान समझना चाहिए।</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
जो मनुष्य ऊपर लिखी विधि के अनुसार एकादशी का व्रत करते हैं, उन्हें शंखोद्धार तीर्थ में स्नान करके भगवान के दर्शन करने से जो फल प्राप्त होता है, वह एकादशी व्रत के सोलहवें भाग के भी समान नहीं है। व्यतिपात के दिन दान देने का लाख गुना फल होता है। संक्रांति से चार लाख गुना तथा सूर्य-चंद्र ग्रहण में स्नान-दान से जो पुण्य प्राप्त होता है वही पुण्य एकादशी के दिन व्रत करने से मिलता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अश्वमेध यज्ञ करने से सौ गुना तथा एक लाख तपस्वियों को साठ वर्ष तक भोजन कराने से दस गुना, दस ब्राह्मणों अथवा सौ ब्रह्मचारियों को भोजन कराने से हजार गुना पुण्य भूमिदान करने से होता है। उससे हजार गुना पुण्य कन्यादान से प्राप्त होता है। इससे भी दस गुना पुण्य विद्यादान करने से होता है। विद्यादान से दस गुना पुण्य भूखे को भोजन कराने से होता है। अन्नदान के समान इस संसार में कोई ऐसा कार्य नहीं जिससे देवता और पितर दोनों तृप्त होते हों परंतु एकादशी के व्रत का पुण्य सबसे अधिक होता है। </div>
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<br /></div>
<div>
<div style="text-align: justify;">
हजार यज्ञों से भी अधिक इसका फल होता है। इस व्रत का प्रभाव देवताओं को भी दुर्लभ है। रात्रि को भोजन करने वाले को उपवास का आधा फल मिलता है और दिन में एक बार भोजन करने वाले को भी आधा ही फल प्राप्त होता है। जबकि निर्जल व्रत रखने वाले का माहात्म्य तो देवता भी वर्णन नहीं कर सकते। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवन! आपने हजारों यज्ञ और लाख गौदान को भी एकादशी व्रत के बराबर नहीं बताया। सो यह तिथि सब तिथियों से उत्तम कैसे हुई, बताइए।</div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #0b5394; font-size: large;"><br /></span></b>
<b><span style="color: #0b5394; font-size: medium;">उत्पन्ना एकादशी कथा </span></b><span style="color: #0b5394;"><b></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
भगवन कहने लगे- हे युधिष्ठिर! सतयुग में मुर नाम का दैत्य उत्पन्न हुआ। वह बड़ा बलवान और भयानक था। उस प्रचंड दैत्य ने इंद्र, आदित्य, वसु, वायु, अग्नि आदि सभी देवताओं को पराजित करके भगा दिया। तब इंद्र सहित सभी देवताओं ने भयभीत होकर भगवान शिव से सारा वृत्तांत कहा और बोले हे कैलाशपति! मुर दैत्य से भयभीत होकर सब देवता मृत्यु लोक में फिर रहे हैं। तब भगवान शिव ने कहा- हे देवताओं! तीनों लोकों के स्वामी, भक्तों के दु:खों का नाश करने वाले भगवान विष्णु की शरण में जाओ। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वे ही तुम्हारे दु:खों को दूर कर सकते हैं। शिवजी के ऐसे वचन सुनकर सभी देवता क्षीरसागर में पहुँचे। वहाँ भगवान को शयन करते देख हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगेकि हे देवताओं द्वारा स्तुति करने योग्य प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है, देवताओं की रक्षा करने वाले मधुसूदन! आपको नमस्कार है। आप हमारी रक्षा करें। दैत्यों से भयभीत होकर हम सब आपकी शरण में आए हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
आप इस संसार के कर्ता, माता-पिता, उत्पत्ति और पालनकर्ता और संहार करने वाले हैं। सबको शांति प्रदान करने वाले हैं। आकाश और पाताल भी आप ही हैं। सबके पितामह ब्रह्मा, सूर्य, चंद्र, अग्नि, सामग्री, होम, आहुति, मंत्र, तंत्र, जप, यजमान, यज्ञ, कर्म, कर्ता, भोक्ता भी आप ही हैं। आप सर्वव्यापक हैं। आपके सिवा तीनों लोकों में चर तथा अचर कुछ भी नहीं है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
हे भगवन्! दैत्यों ने हमको जीतकर स्वर्ग से भ्रष्ट कर दिया है और हम सब देवता इधर-उधर भागे-भागे फिर रहे हैं, आप उन दैत्यों से हम सबकी रक्षा करें। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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<div>
<div style="text-align: justify;">
इंद्र के ऐसे वचन सुनकर भगवान विष्णु कहने लगे कि हे इंद्र! ऐसा मायावी दैत्य कौन है जिसने सब देवताअओं को जीत लिया है, उसका नाम क्या है, उसमें कितना बल है और किसके आश्रय में है तथा उसका स्थान कहाँ है? यह सब मुझसे कहो।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
भगवान के ऐसे वचन सुनकर इंद्र बोले- भगवन! प्राचीन समय में एक नाड़ीजंघ नामक राक्षस थ उसके महापराक्रमी और लोकविख्यात मुर नाम का एक पुत्र हुआ। उसकी चंद्रावती नाम की नगरी है। उसी ने सब देवताअओं को स्वर्ग से निकालकर वहाँ अपना अधिकार जमा लिया है। उसने इंद्र, अग्नि, वरुण, यम, वायु, ईश, चंद्रमा, नैऋत आदि सबके स्थान पर अधिकार कर लिया है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
सूर्य बनकर स्वयं ही प्रकाश करता है। स्वयं ही मेघ बन बैठा है और सबसे अजेय है। हे असुर निकंदन! उस दुष्ट को मारकर देवताओं को अजेय बनाइए। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
यह वचन सुनकर भगवान ने कहा- हे देवताओं, मैं शीघ्र ही उसका संहार करूंगा। तुम चंद्रावती नगरी जाओ। इस प्रकार कहकर भगवान सहित सभी देवताओं ने चंद्रावती नगरी की ओर प्रस्थान किया। उस समय दैत्य मुर सेना सहित युद्ध भूमि में गरज रहा था। उसकी भयानक गर्जना सुनकर सभी देवता भय के मारे चारों दिशाओं में भागने लगे। जब स्वयं भगवान रणभूमि में आए तो दैत्य उन पर भी अस्त्र, शस्त्र, आयुध लेकर दौड़े।</div>
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<br /></div>
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<div>
<div style="text-align: justify;">
भगवान ने उन्हें सर्प के समान अपने बाणों से बींध डाला। बहुत-से दैत्य मारे गए। केवल मुर बचा रहा। वह अविचल भाव से भगवान के साथ युद्ध करता रहा। भगवान जो-जो भी तीक्ष्ण बाण चलाते वह उसके लिए पुष्प सिद्ध होता। उसका शरीर छिन्न-भिन्न हो गया किंतु वह लगातार युद्ध करता रहा। दोनों के बीच मल्लयुद्ध भी हुआ।</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
कई हजार वर्ष तक उनका युद्ध चलता रहा किंतु मुर नहीं हारा। थककर भगवान बद्रिकाश्रम चले गए। वहां हेमवती नामक सुंदर गुफा थी, उसमें विश्राम करने के लिए भगवान उसके अंदर प्रवेश कर गए। यह गुफा 12 योजन लंबी थी और उसका एक ही द्वार था। विष्णु भगवान वहां योगनिद्रा की गोद में सो गए।</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मुर भी पीछे-पीछे आ गया और भगवान को सोया देखकर मारने को उद्यत हुआ तभी भगवान के शरीर से उज्ज्वल, कांतिमय रूप वाली देवी प्रकट हुई। देवी ने राक्षस मुर को ललकारा, युद्ध किया और उसे तत्काल मौत के घाट उतार दिया। </div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
श्री हरि जब योगनिद्रा की गोद से उठे, तो सब बातों को जानकर उस देवी से कहा कि आपका जन्म एकादशी के दिन हुआ है, अत: आप उत्पन्ना एकादशी के नाम से पूजित होंगी। आपके भक्त वही होंगे, जो मेरे भक्त हैं।</div>
</div>
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<br /></div>
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<b><span style="color: #073763; font-size: large;">उत्पन्ना एकादशी व्रत विधि </span></b></div>
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<br /></div>
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इस एकादशी का व्रत किस प्रकार करना चाहिए इस विषय में भगवान ने कहा है कि दशमी के दिन सिर्फ दिन के वक्त सात्विक आहार करना चाहिए और संध्या काल में दातुन करके पवित्र होना चाहिए रात्रि के समय भोजन नहीं करना चाहिए और भगवान के स्वरूप का स्मरण करते हुए सोना चाहिए।</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
सुबह स्नान करके संकल्प करना चाहिए और निर्जला व्रत रखना चाहिए। दिन में भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए। पूजा में धूप, दीप एवं नाना प्रकार से समग्रियों से विष्णु को प्रसन्न करना चाहिए। कलुषित विचार को त्याग कर सात्विक भाव धारण करना चाहिए। रात्रि के समय श्री हरि के नाम से दीप दान करना चाहिए और आरती एवं भजन गाते हुए जागरण करना चाहिए।</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
भगवान कहते हैं जो व्यक्ति इस प्रकार उत्पन्ना एकादशी का व्रत करता है उसे हजारों यज्ञों के बाराबर पुण्य प्राप्त होता है। जो भिन्न भिन्न धर्म कर्म से पुण्य प्राप्त होता है उन सबसे कई गुणा अधिक पुण्य इस एकादशी का व्रत निष्ठा पूर्वक करने से प्राप्त् होता है।</div>
</div>
</div>
गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6460435484229472119.post-41399875943257717402016-11-21T00:52:00.000+05:302020-12-08T09:15:38.392+05:30 काल भैरव अष्टमी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
मार्गशीर्ष माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी काल भैरवाष्टमी के रूप में मनाई जाती है। इस दिन भगवान महादेव ने कालभैरव के रूप में अवतार लिया था। कालभैरव भगवान महादेव का अत्यंत ही रौद्र, भयाक्रांत, वीभत्स, विकराल प्रचंड स्वरूप है। भैरव जहां शिव के गण के रूप में जाने जाते हैं, वहीं वे दुर्गा के अनुचारी भी माने गए हैं। काल के सदृश भीषण होने के कारण काल भैरव नाम मिला। भैरव जी को काशी का कोतवाल भी माना जाता है। कालभैरव के पूजन से अनिष्ट का निवारण होता है। भैरव अष्टमी कालाष्टमी के नाम से भी प्रचलित है |</div>
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भगवान शिव के अवतार कहे जाने वाले भगवान कालभैरव का अवतार, मार्गशीर्ष माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन दोपहर में हुआ था । अतः श्रद्धालुओं द्वारा इस दिन को भैरव-जयंती के रुप में मनाई जाती है, और इसी दिन श्रद्धालुओं द्वारा व्रत भी रखा जाता है। इस संबंध में शिवपुराण में कहा गया है कि भगवान शिव ने कालभैरव के रूप में अवतार लिया है, और महादेव का ये स्वरुप भी भक्तों को मनोवांछित फल देनेवाला है। इस दिन प्रत्येक प्रहर में काल भैरव और ईशान नाम के शिव की पूजा और जल चढ़ाने का विधान है । लोगों के बीच ऐसी मान्यता है कि भगवान काल भैरव का वाहन काला कुत्ता है| इसीलिए इस दिन काले कुत्ते की भी पूजा करने का प्रचलन है | कहा जाता है कि भगवान भैरव से काल भी भयभीत रहता है, इसलिए उन्हें कालभैरव भी कहते हैं |</div>
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<div style="text-align: justify;">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjCCyyiBx0gX13I_EICCczW7FxB3ZOvoFSj4eoY5qbzxo8KuPEVBRLOGDC8VZhRFNZ4djZ0ZyN3tfevjMovrULTqfpas2XvB0xD7Omym11QXs49WfTJII68phmRc76h3_zf3UZLomuheBny/s1600/lordbharav_26_05_2015.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjCCyyiBx0gX13I_EICCczW7FxB3ZOvoFSj4eoY5qbzxo8KuPEVBRLOGDC8VZhRFNZ4djZ0ZyN3tfevjMovrULTqfpas2XvB0xD7Omym11QXs49WfTJII68phmRc76h3_zf3UZLomuheBny/s1600/lordbharav_26_05_2015.jpg"></a></div>
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
श्रद्धालुओं के बीच ऐसी मान्यता है कि यह व्रत भगवान गणेश, भगवान विष्णु, यम, चंद्रमा, कुबेर ने भी किया था, और इसी व्रत के फलस्वरुप भगवान विष्णु लक्ष्मीपति बने और कई राजा चक्रवर्ती सम्राट बने। इसे सभी कामनाओं की पूर्ति करने वाला व्रत कहा गया है। ऐसी मान्यता है कि अष्टमी के दिन स्नान के बाद पितरों का श्राद्ध और तर्पण करने के बाद, यदि कालभैरव की पूजा की जाए तो उपासक के सारे विघ्न टल जाते हैं।</div>
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</div>
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<b><span style="color: #073763; font-size: large;">कालभैरव अवतार कथा </span></b><br>
एक बार सुमेरु पर्वत पर बैठे हुए ब्रम्हाजी के पास जाकर देवताओं ने उनसे अविनाशी तत्व बताने का अनुरोध किया | शिवजी की माया से मोहित ब्रह्माजी उस तत्व को न जानते हुए भी इस प्रकार कहने लगे - मैं ही इस संसार को उत्पन्न करने वाला स्वयंभू, अजन्मा, एक मात्र ईश्वर , अनादी भक्ति, ब्रह्म घोर निरंजन आत्मा हूँ| मैं ही प्रवृति उर निवृति का मूलाधार , सर्वलीन पूर्ण ब्रह्म हूँ | ब्रह्मा जी ऐसा की पर मुनि मंडली में विद्यमान विष्णु जी ने उन्हें समझाते हुए कहा की मेरी आज्ञा से तो तुम सृष्टी के रचियता बने हो, मेरा अनादर करके तुम अपने प्रभुत्व की बात कैसे कर रहे हो ? इस प्रकार ब्रह्मा और विष्णु अपना-अपना प्रभुत्व स्थापित करने लगे और अपने पक्ष के समर्थन में शास्त्र वाक्य उद्घृत करने लगे| अंततः वेदों से पूछने का निर्णय हुआ तो स्वरुप धारण करके आये चारों वेदों ने क्रमशः अपना मत६ इस प्रकार प्रकट किया -<br>
ऋग्वेद- जिसके भीतर समस्त भूत निहित हैं तथा जिससे सब कुछ प्रवत्त होता है और जिसे परमात्व कहा जाता है, वह एक रूद्र रूप ही है |<br>
यजुर्वेद- जिसके द्वारा हम वेद भी प्रमाणित होते हैं तथा जो ईश्वर के संपूर्ण यज्ञों तथा योगों से भजन किया जाता है, सबका दृष्टा वह एक शिव ही हैं|<br>
सामवेद- जो समस्त संसारी जनों को भरमाता है, जिसे योगी जन ढूँढ़ते हैं और जिसकी भांति से सारा संसार प्रकाशित होता है, वे एक त्र्यम्बक शिवजी ही हैं |<br>
अथर्ववेद- जिसकी भक्ति से साक्षात्कार होता है और जो सब या सुख - दुःख अतीत अनादी ब्रम्ह हैं, वे केवल एक शंकर जी ही हैं|<br>
विष्णु ने वेदों के इस कथन को प्रताप बताते हुए नित्य शिवा से रमण करने वाले, दिगंबर पीतवर्ण धूलि धूसरित प्रेम नाथ, कुवेटा धारी, सर्वा वेष्टित, वृपन वाही, निःसंग,शिवजी को पर ब्रम्ह मानने से इनकार कर दिया| ब्रम्हा-विष्णु विवाद को सुनकर ओंकार ने शिवजी की ज्योति, नित्य और सनातन परब्रम्ह बताया परन्तु फिर भी शिव माया से मोहित ब्रम्हा विष्णु की बुद्धि नहीं बदली |<br>
<br>
उस समय उन दोनों के मध्य आदि अंत रहित एक ऐसी विशाल ज्योति प्रकट हुई की उससे ब्रम्हा का पंचम सिर जलने लगा| इतने में त्रिशूलधारी नील-लोहित शिव वहां प्रकट हुए तो अज्ञानतावश ब्रम्हा उन्हें अपना पुत्र समझकर अपनी शरण में आने को कहने लगे| ब्रम्हा की संपूर्ण बातें सुनकर शिवजी अत्यंत क्रुद्ध हुए और उन्होंने तत्काल भैरव को प्रकट कर उससे ब्रम्हा पर शासन करने का आदेश दिया| आज्ञा का पालन करते हुए भैरव ने अपनी बायीं ऊँगली के नखाग्र से ब्रम्हाजी का पंचम सिर काट डाला| भयभीत ब्रम्हा शत रुद्री का पाठ करते हुए शिवजी के शरण हुए|ब्रम्हा और विष्णु दोनों को सत्य की प्रतीति हो गयी और वे दोनों शिवजी की महिमा का गान करने लगे| यह देखकर शिवजी शांत हुए और उन दोनों को अभयदान दिया| इसके उपरान्त शिवजी ने उसके भीषण होने के कारण 'भैरव' और काल को भी भयभीत करने वाला होने के कारण 'काल भैरव' तथा भक्तों के पापों को तत्काल नष्ट करने वाला होने के कारण 'पाप भक्षक' नाम देकर उसे काशीपुरी का अधिपति बना दिया | फिर कहा की भैरव तुम इन ब्रम्हा विष्णु को मानते हुए ब्रम्हा के कपाल को धारण करके इसी के आश्रय से भिक्षा वृति करते हुए वाराणसी में चले जाओ | वहां उस नगरी के प्रभाव से तुम ब्रम्ह हत्या के पाप से मुक्त हो जाओगे |<br>
<br>
शिवजी की आज्ञा से भैरव जी हाथ में कपाल लेकर ज्योंही काशी की ओर चले, ब्रम्ह हत्या उनके पीछे पीछे हो चली| विष्णु जी ने उनकी स्तुति करते हुए उनसे अपने को उनकी माया से मोहित न होने का वरदान माँगा | विष्णु जी ने ब्रम्ह हत्या के भैरव जी के पीछा करने की माया पूछना चाही तो ब्रम्ह हत्या ने बताया की वह तो अपने आप को पवित्र और मुक्त होने के लिए भैरव का अनुसरण कर रही है |भैरव जी ज्यों ही काशी पहुंचे त्यों ही उनके हाथ से चिमटा और कपाल छूटकर पृथ्वी पर गिर गया और तब से उस स्थान का नाम कपालमोचन तीर्थ पड़ गया | इस तीर्थ मैं जाकर सविधि पिंडदान और देव-पितृ-तर्पण करने से मनुष्य ब्रम्ह हत्या के पाप से निवृत हो जाता है |<br>
<br>
<br>
<br></div>
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<span style="color: #0b5394; font-size: large;"><b>पूजन विधि </b></span></div>
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मार्गशीर्ष अष्टमी पर कालभैरव के निमित्त व्रत उपवास रखने पर जल्द ही भक्तों की मनोकामना पूर्ण हो जाती हैं। इस पर्व की व्रत की विधि इस प्रकार है-</div>
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भैरवाष्टमी के दिन सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठें। स्नान आदि कर्म से निवृत्त होकर व्रत का संकल्प करें। उसके बाद किसी कालभैरव मंदिर जाएं। वहां जाकर भैरव महाराज की विधिवत पूजा-अर्चना करें। </div>
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काल भैरवाष्टमी के दिन मंदिर जाकर भैरवजी के दर्शन करने से पूर्ण फल की प्राप्ति होती है। उनकी प्रिय वस्तुओं में काले तिल, उड़द, नींबू, नारियल, अकौआ के पुष्प, कड़वा तेल, सुगंधित धूप, पुए, मदिरा, कड़वे तेल से बने पकवान दान किए जा सकते हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
साथ ही उनके वाहन की भी पूजा करें। साथ में ऊँ भैरवाय नम: मंत्र से पूजन करें,और दिन में फलाहार करें। भैरवजी का वाहन कुत्ता है, इसलिए कुत्तों को मिठाई खिलाएं। इस दिन भैरवजी के वाहन श्वान को गुड़ खिलाने का विशेष महत्व है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
कालभैरव के पूजन-अर्चन से सभी प्रकार के अनिष्टों का निवारण होता है तथा रोग, शोक, दुखः, दरिद्रता से मुक्ति मिलती है। कालभैरव के पूजन में उनकी प्रिय वस्तुएं अर्पित कर आशीर्वाद प्राप्त किया जा सकता है। </div>
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<br></div>
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भैरवजी के दर्शन-पूजन से सकंट व शत्रु बाधा का निवारण होता है। दसों दिशाओं के नकारात्मक प्रभावों से मुक्ति मिलती है तथा पुत्र की प्राप्ति होती है।</div>
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</div>
Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6460435484229472119.post-74786731041194707422016-11-14T10:51:00.000+05:302020-11-30T12:24:31.598+05:30कार्तिक पूर्णिमा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा कार्तिक पूर्णिमा कही जाती है। आज के दिन ही भगवान भोलेनाथ ने त्रिपुरासुर नामक महाभयानक असुर का अंत किया था और वे त्रिपुरारी के रूप में पूजित हुए थे। इसलिए इसे 'त्रिपुरी पूर्णिमा' भी कहते हैं।पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कार्तिक मास बारह मासों में सबसे श्रेष्ठ मास माना गया है। यह भगवान कार्तिकेय द्वारा की गई साधना का माह माना जाता है। इस कारण ही इसका नाम कार्तिक महीना पड़ा। इस दिन कार्तिकेय के पूजन का विशिष्ठ महत्व है। कहा जाता है कि कार्तिकेय को भगवान विष्णु द्वारा धर्म मार्ग को प्रबल करने की प्रेरणा दी गई है।कार्तिकेय ने इसी इसी आधार पर धर्मशास्त्र में भगवान विष्णु के दामोदर अवतार तथा अर्द्घांगिनी राधा का विशेष उल्लेख किया है।</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi-gyjhKtj_kdv0mG9IC2IFsrzBa5hFlFpARgolBtbAsGTMQyFY57pgASQtac2SdwQjGtvS3Ni56R0g8rLqLgpliWNWm-vAeXtdVqMHQzOXDRpLunXT2Kyc8gS9ntgXO3PEg9rRlYO1MRS-/s1600/1474534479-4335.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="224" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi-gyjhKtj_kdv0mG9IC2IFsrzBa5hFlFpARgolBtbAsGTMQyFY57pgASQtac2SdwQjGtvS3Ni56R0g8rLqLgpliWNWm-vAeXtdVqMHQzOXDRpLunXT2Kyc8gS9ntgXO3PEg9rRlYO1MRS-/s400/1474534479-4335.jpg" width="400"></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
कार्तिक पूर्णिमा को देवताओं की दीपावली भी माना गया है मान्यता है कि जिस प्रकार हम लोग कार्तिक की अमावस्या को दीपावली के रूप में मनाते हैं, उसी तरह देवता कार्तिक की पूर्णिमा को अपना दीपावली-महोत्सव मनाते हैं. ऐसा इसलिए कि आषाढ़ शुक्ल एकादशी से भगवान विष्णु चार माह के समय चातुर्मास में योगनिद्रा में लीन रहते हैं. संपूर्ण जगत के पालक श्री हरि के इस शयनकाल में समस्त मांगलिक कार्यो का स्थगित होना स्वाभाविक ही है.शास्त्रों में दिए वर्णन अनुसार श्रीहरि ने भाद्रमास की एकादशी को शंखासुर राक्षस करने के बाद क्षीरसागर में शयन किया और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागे. इसे देवोत्थान एकादशी के नाम से जाना गया. भगवान के जागने की खुशी में पांचवें दिन पूर्णिमा की रात देवों ने आह्लादित होकर गंगा, अन्य नदियों व सरोवरों के तट पर दीप जलाकर कर उत्सव मनाया.तब से इसे देवताओं की दीपावली भी कहा गया है |</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
इस दिन चंद्रोदय पर शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का अवश्य पूजन करना चाहिए। कार्तिकी पूर्णिमा की रात्रि में व्रत करके वृष (बैल) दान करने से शिव पद प्राप्त होता है। गाय, हाथी, घोड़ा, रथ, घी आदि का दान करने से सम्पत्ति बढ़ती है। इस दिन उपवास करके भगवान का स्मरण, चिंतन करने से अग्निष्टोम यज्ञ के समान फल प्राप्त होता है तथा सूर्यलोक की प्राप्ति होती है। इस दिन मेष (भेड़) दान करने से ग्रहयोग के कष्टों का नाश होता है। इस दिन कन्यादान से 'संतान व्रत' पूर्ण होता है। कार्तिकी पूर्णिमा से प्रारम्भ करके प्रत्येक पूर्णिमा को रात्रि में व्रत और जागरण करने से सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। इस दिन कार्तिक के व्रत धारण करने वालों को ब्राह्मण भोजन, हवन तथा दीपक जलाने का भी विधान है। इस दिन यमुना जी पर कार्तिक स्नान की समाप्ति करके राधा-कृष्ण का पूजन, दीपदान, शय्यादि का दान तथा ब्राह्मण भोजन कराया जाता है। कार्तिक की पूर्णिमा वर्ष की पवित्र पूर्णमासियों में से एक है।इस पूर्णिमा को शैव मत में जितनी मान्यता मिली है उतनी ही वैष्णव मत में भी।</div>
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इस दिन यदि कृत्तिका नक्षत्र हो तो यह 'महाकार्तिकी' होती है, भरणी नक्षत्र होने पर विशेष फल देती है और रोहिणी नक्षत्र होने पर इसका महत्व बहुत अधिक बढ़ जाता है। इस दिन सन्ध्या समय में भगवान विष्णु का मत्स्यावतार हुआ था। इस दिन गंगा स्नान के बाद दीप-दान आदि का फल दस यज्ञों के समान होता है। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, अंगिरा और आदित्य ने इसे 'महापुनीत पर्व' कहा है। इसलिए इसमें गंगा स्नान, दीपदान, होम, यज्ञ तथा उपासना आदि का विशेष महत्व है। इस दिन कृत्तिका पर चंद्रमा और विशाखा पर सूर्य हो तो 'पद्मक योग' होता है जो पुष्कर स्नान के फल से भी दुर्लभ है। इस दिन कृतिका पर चंद्रमा और बृहस्पति हो तो यह 'महापूर्णिमा' कहलाती है। इस दिन सन्ध्याकाल में त्रिपुरोत्सव करके दीपदान करने से पूनर्जन्मादि कष्ट नहीं होता। इस तिथि में कृत्तिका में विश्व स्वामी महादेव का दर्शन करने से ब्राह्मण सात जन्म तक वेदपाठी और धनवान होता है।</div>
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सिख सम्प्रदाय में भी कार्तिक पूर्णिमा का दिन अत्यंत महत्व पूर्ण है एवं प्रकाशोत्सव के रूप में मनाया जाता है। क्योंकि इस दिन सिख सम्प्रदाय के संस्थापक गुरू नानक देव का जन्म हुआ था। इस दिन सिख सम्प्रदाय के अनुयायी सुबह स्नान कर गुरूद्वारों में जाकर गुरूवाणी सुनते हैं और नानक जी के बताये रास्ते पर चलने की सौगंध लेते हैं। इसे गुरु पर्व भी कहा जाता है।</div>
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<b><span style="color: #0b5394; font-size: large;">कार्तिक पूर्णिमा की कथाऐ</span></b></div>
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एक बार त्रिपुर राक्षस ने एक लाख वर्ष तक प्रयागराज में घोर तप किया। इस तप के प्रभाव से समस्त जड़-चेतन, जीव तथा देवता भयभीत हो गए। देवताओं ने तप भंग करने के लिए अप्सराएं भेजीं, पर उन्हें सफलता न मिल सकी। आख़िर ब्रह्मा जी स्वयं उसके सामने प्रस्तुत हुए और वर मांगने को कहा। त्रिपुर ने वर मांगा- 'न देवताओं के हाथों मरूं, न मनुष्य के हाथों।' इस वरदान के बल पर त्रिपुर निडर होकर अत्याचार करने लगा। इतना ही नहीं उसने कैलाश पर्वत पर भी चढ़ाई कर दी। परिणामत: महादेव तथा त्रिपुर में घमासान युद्ध छिड़ गया। अंत में शिव जी ने ब्रह्मा तथा विष्णु की सहायता से उसका संहार कर दिया। इस दिन क्षीरसागर दान का अनंत माहात्म्य है, क्षीरसागर का दान 24 अंगुल के बर्तन में दूध भरकर उसमें स्वर्ण या रजत की मछली छोड़कर किया जाता है। यह उत्सव दीपावली की भांति दीप जलाकर सायंकाल में मनाया जाता है।</div>
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<span style="color: #073763;"><b>पुराणों में</b></span></div>
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इसी दिन भगवान विष्णु ने प्रलय काल में वेदों की रक्षा के लिए तथा सृष्टि को बचाने के लिए मत्स्य अवतार धारण किया था।</div>
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<b><span style="color: #073763;">महाभारत में</span></b></div>
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महाभारत काल में हुए १८ दिनों के विनाशकारी युद्ध में योद्धाओं और सगे संबंधियों को देखकर जब युधिष्ठिर कुछ विचलित हुए तो भगवान श्री कृष्ण पांडवों के साथ गढ़ खादर के विशाल रेतीले मैदान पर आए। कार्तिक शुक्ल अष्टमी को पांडवों ने स्नान किया और कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी तक गंगा किनारे यज्ञ किया। इसके बाद रात में दिवंगत आत्माओं की शांति के लिए दीपदान करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित की। इसलिए इस दिन गंगा स्नान का और विशेष रूप से गढ़मुक्तेश्वर तीर्थ नगरी में आकर स्नान करने का विशेष महत्व है।</div>
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<span style="color: #0b5394; font-size: large;"><b>कार्तिक पूर्णिमा वैष्णव मत में</b></span></div>
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कार्तिक पूर्णिमा को गोलोक के रासमण्डल में श्री कृष्ण ने श्री राधा का पूजन किया था | हमारे तथा अन्य सभी ब्रह्मांडों से परे जो सर्वोच्च गोलोक है वहां इस दिन राधा उत्सव मनाया जाता है तथा रासमण्डल का आयोजन होता है | कार्तिक पूर्णिमा को श्री हरि के बैकुण्ठ धाम में देवी तुलसी का मंगलमय पराकाट्य हुआ था |कार्तिक पूर्णिमा को ही देवी तुलसी ने पृथ्वी पर जन्म ग्रहण किया था | कार्तिक पूर्णिमा को राधिका जी की शुभ प्रतिमा का दर्शन और वन्दन करके मनुष्य जन्म के बंधन से मुक्त हो जाता है | इस दिन बैकुण्ठ के स्वामी श्री हरि को तुलसी पत्र अर्पण करते हैं | कार्तिक मास में विशेषतः श्री राधा और श्री कृष्ण का पूजन करना चाहिए | जो कार्तिक में तुलसी वृक्ष के नीचे श्री राधा और श्री कृष्ण की मूर्ति का पूजन (निष्काम भाव से) करते हैं उन्हें जीवनमुक्त समझना चाहिए | तुलसी के अभाव में आंवलें के नीचे पूजन करनी चाहिए | कार्तिक मास में पराये अन्न, गाजर, दाल, चावल, मूली, बैंगन, घीया, तेल लगाना, तेल खाना, मदिरा, कांजी का त्याग करें | कार्तिक मास में अन्न का दान अवश्य करें |</div>
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<b><span style="color: #0b5394; font-size: large;">स्नान और दान विधि</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
महर्षि अंगिरा ने स्नान के प्रसंग में लिखा है कि यदि स्नान में कुशा और दान करते समय हाथ में जल व जप करते समय संख्या का संकल्प नहीं किया जाए तो कर्म फल की प्राप्ति नहीं होती है। शास्त्र के नियमों का पालन करते हुए इस दिन स्नान करते समय पहले हाथ पैर धो लें फिर आचमन करके हाथ में कुशा लेकर स्नान करें, इसी प्रकार दान देते समय में हाथ में जल लेकर दान करें। आप यज्ञ और जप कर रहे हैं तो पहले संख्या का संकल्प कर लें फिर जप और यज्ञादि कर्म करें।</div>
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<span style="color: #0b5394; font-size: large;"><b>पूजन विधि </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
कार्तिक पूर्णिमा की पूजा क लिए इस दिन सुबह-सवेरे दिनचर्या से निवृत होकर स्नान आदि करें.इस दिन स्नान करते समय पहले हाथ पैर धो लें फिर आचमन करके हाथ में कुशा लेकर स्नान करें</div>
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उसके बाद स्वच्छ वस्त्र धारण करें.कार्तिक पूर्णिमा की पूजा का मन में संकल्प कर</div>
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अपने इष्ट अथवा भगवान विष्णु की विधिवत रुप से पूजा- अर्चना करें.</div>
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भगवान को शुद्ध सुवासित जल से स्नान कराएं। स्नान के बाद चंदन, पीले वस्त्र, पीले फूल वहीं यदि शिवलिंग हो तो उस पर दूध मिले जल से स्नान के बाद सफेद आंकड़े के फूल, अक्षत, बिल्वपत्र और दूध से बनी मिठाईयों का भोग लगाकर चंदन धूप व गो घृत जलाकर भगवान का मंत्रों से स्मरण करें -</div>
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<div style="text-align: justify;">
पूजा व मंत्र जप के बाद इष्ट की धूप, दीप व कर्पूर आरती कर घर के द्वार पर दीप प्रज्जवलित भी करें।</div>
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गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6460435484229472119.post-45955573132762201782016-11-14T10:34:00.000+05:302020-11-30T12:24:09.770+05:30 देव दीपावली- कार्तिक पूर्णिमा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
प्राचीन धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जिस तरह मनुष्य कार्तिक अमावस्या के दिन मनुष्य दीपावली मनाते हैं उसी तरह देवता कार्तिक पूर्णिमा के दिन दीपावली मनाते हैं. मान्यता है कि जिस प्रकार हम लोग कार्तिक की अमावस्या को दीपावली के रूप में मनाते हैं, उसी तरह देवता कार्तिक की पूर्णिमा को अपना दीपावली-महोत्सव मनाते हैं. ऐसा इसलिए कि आषाढ़ शुक्ल एकादशी से भगवान विष्णु चार माह के समय चातुर्मास में योगनिद्रा में लीन रहते हैं. संपूर्ण जगत के पालक श्री हरि के इस शयनकाल में समस्त मांगलिक कार्यो का स्थगित होना स्वाभाविक ही है. इसी कारण सनातन धर्म के पंचांगों में चातुर्मास में विवाह मुहूर्त्त नहीं दिए जाते हैं. कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन भगवान विष्णु के योग-निद्रा से जग जाने के उपरांत ही विवाहादिशुभ कार्य पुन:शुरू होते हैं.<br>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhYyifHuqWmsap0gK6CK6HOiz0KZU5wFyYzJXmQyoNtuJugvUitIpIshIoJjEz8PqsTt0I6HvAqAMzJPxOj1QhgA5sHyTs1KRIAGFbLJ591_cPy2izIotmi3cxhA_6kyyAMHOvI7aMGuDzX/s1600/karticpurnima.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="239" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhYyifHuqWmsap0gK6CK6HOiz0KZU5wFyYzJXmQyoNtuJugvUitIpIshIoJjEz8PqsTt0I6HvAqAMzJPxOj1QhgA5sHyTs1KRIAGFbLJ591_cPy2izIotmi3cxhA_6kyyAMHOvI7aMGuDzX/s320/karticpurnima.jpg" width="320"></a></div>
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हमारी दीपावली की तिथि कार्तिक -अमावस्या श्रीहरि के शयनकाल में होने से इस पर्व में विष्णु प्रिया लक्ष्मी का पूजन उनके पति के बिना होता है. तन्त्रशास्त्र के अनुसार कार्तिक की अमावस्या भगवती कमला की जयन्ती तिथि है. ऐसी मान्यता है कि समुद्र-मंथन से लक्ष्मीजीइसी दिन प्रकट हुई थी. दीपावली की लक्ष्मी-पूजा में दीपमालिका प्रज्वलित करते समय पढ़े जाने वाले मंत्रों से विष्णु-पत्नी लक्ष्मी को श्रीहरि के जगने से पूर्व जगाया जाता है. जिस प्रकार एक अच्छी पत्नी पति के उठने से पूर्व जगकर घर का काम संभाल लेती है, उसी तरह भगवान विष्णु जी की अर्धागिनी लक्ष्मी जी कार्तिक शुक्ल एकादशी में उनके जगने से पहले कार्तिक-अमावस्या में जाग्रत होकर लोक-पालन की व्यवस्था संभाल लेती हैं.<br>
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मान्यता है कि श्रीहरि ने भाद्रमास की एकादशी को शंखासुर राक्षस करने के बाद क्षीरसागर में शयन किया और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागे. इसे देवोत्थान एकादशी के नाम से जाना गया. भगवान के जागने की खुशी में पांचवें दिन पूर्णिमा की रात देवों ने आह्लादित होकर गंगा, अन्य नदियों व सरोवरों के तट पर दीप जलाकर कर उत्सव मनाया. यह भी माना जाता है कि कार्तिक पूर्णिमा को ही भगवान शंकर ने त्रिपुरासुर नामक राक्षस का वध किया था. इसी दिन शिवजी के आशीर्वाद से दुर्गारूपिणी पार्वती ने महिषासुर वध के लिए शक्तियां अर्जित की थीं. इस दिन चंद्रोदय पर 6 कृतिकाओं -शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनसूया व क्षमा का पूजन मंगलकारी माना जाता है.</div>
गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6460435484229472119.post-33824469379190487462016-11-13T10:59:00.000+05:302020-11-29T10:54:58.694+05:30बैकुण्ठ (वैकुंठ) चतुर्दशी - कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
सनातन धर्म अनुसार कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को बैकुण्ठ चतुर्दशी के नाम से जाना जाता है. माना जाता है कि कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष कि चतुर्दशी को हेमलंब वर्ष में अरुणोदय काल में, ब्रह्म मुहूर्त में स्वयं भगवान विष्णु ने वाराणसी में मणिकर्णिका घाट पर स्नान किया था। पाशुपत व्रत करके विश्वेश्वर ने यहाँ पूजा कि थी। भगवान शंकर ने भगवान विष्णु के तप से प्रसन्न होकर इस दिन पहले विष्णु और फिर उनकी पूजा करने वाले हर भक्त को वैकुंठ पाने का आशीर्वाद दिया। ऐसी मान्यता है कि बैकुंठाधिपति भगवान विष्णु की पूजा करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है और बैकुंठ धाम में निवास प्राप्त होता है।हिन्दू धर्म में वैकुण्ठ लोक भगवान विष्णु का निवास व सुख का धाम ही माना गया है। पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक वैकुण्ठ लोक चेतन्य, दिव्य व प्रकाशित है। तभी से इस दिन को 'काशी विश्वनाथ स्थापना दिवस' के रूप में भी मनाया जाता है। इस शुभ दिन के उपलक्ष्य में भगवान शिव तथा विष्णु की पूजा की जाती है. इसके साथ ही व्रत का पारण किया जाता है. यह बैकुण्ठ चौदस के नाम से भी जानी जाती है. इस दिन श्रद्धालुजन व्रत रखते हैं. </div>
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कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी (वैकुण्ठ चतुर्दशी) की रात्रि में भगवान विष्णु और भगवान शंकर का मिलन हरिहर मिलाप के रूप में होता है। मान्यता है कि मध्य रात्रि में शिव जी, विष्णु जी से मिलने जाते है.भगवान शिव चार महीने के लिए सृष्टी का भार भगवान विष्णु को सौंप कर हिमालय पर्वत पर चले जाते है. इसलिए भगवान शिव का पूजन, भगवान विष्णु जी की प्रिय तुलसीदल से किया जाता है, बाद में भगवान विष्णु जी, भगवान शिव जी के पास आते है, तो भगवान चतुर्भज को फलों का भोग और शिवप्रिय बिल्वपत्र अर्पित किये जाते है.इस प्रकार एक दूसरे के प्रिय वस्तुओं का भोग एक दूसरे को लगाते है.इस दिन भगवान को विभिन्न ऋतु फलों का भोग लगाया जाता है।कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी भगवान विष्णु तथा शिव जी के "ऎक्य" का प्रतीक है.जगत पालक विष्णु और कल्याणकारी देवता शिव की भक्ति में भी यही संकेत है।<br>
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बैकुण्ठ चतुर्दशी के दिन श्रद्धालुजन व्रत रखते हैं.यह व्रत कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी, जो अरुणोदयव्यापिनी हो, के दिन मनाया जाता है.इस चतुर्दशी के दिन यह व्रत भगवान शिव तथा भगवान विष्णु जी की पूजा करके मनाया जाता है.जिस रात्रि में चतुर्दशी अरुणोदयव्यापिनी हो, उस रात्रि में व्रत-उपवास रखा जाता है.अगले अरुणोदय में इस व्रत की पूजा तथा पारणा की जाती है.<br>
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शास्त्रों के मुताबिक इस दिन शिव और विशेष विष्णु मंत्रों के ध्यान से शक्ति व लक्ष्मी की प्रसन्नता मिलती है, जिससे दरिद्रता दूर होती है और सांसारिक कामनाओं जैसे दौलत, यश, प्रतिष्ठा और हर सुख की कामनासिद्धि जल्द होती हैं। कार्तिक शुक्ल चौदस के दिन ही भगवान विष्णु ने "मत्स्य" रुप में अवतार लिया था.इसके अगले दिन कार्तिक पूर्णिमा के व्रत का फल दस यज्ञों के समान फल देने वाला माना गया है.</div>
<div style="text-align: justify;">
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<span style="color: #073763; font-size: large;"><b>बैकुण्ठ चतुर्दशी कथा </b></span></div>
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<b><span style="color: #0b5394;">कथा ०१ </span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
प्राचीन मतानुसार एक बार भगवान विष्णु देवाधिदेव महादेव का पूजन करने के लिए काशी आए। वहाँ मणिकर्णिका घाट पर स्नान करके उन्होंने एक हज़ार स्वर्ण कमल पुष्पों से भगवान विश्वनाथ के पूजन का संकल्प किया। अभिषेक के बाद जब वे पूजन करने लगे तो शिवजी ने उनकी भक्ति की परीक्षा के उद्देश्य से एक कमल पुष्प कम कर दिया। भगवान श्रीहरि को पूजन की पूर्ति के लिए एक हज़ार कमल पुष्प चढ़ाने थे। एक पुष्प की कमी देखकर उन्होंने सोचा मेरी आंखें भी तो कमल के ही समान हैं। मुझे 'कमल नयन' और 'पुंडरीकाक्ष' कहा जाता है। यह विचार कर भगवान विष्णु अपनी कमल समान आंख चढ़ाने को प्रस्तुत हुए। विष्णु जी की इस अगाध भक्ति से प्रसन्न होकर देवाधिदेव महादेव प्रकट होकर बोले- "हे विष्णु! तुम्हारे समान संसार में दूसरा कोई मेरा भक्त नहीं है। आज की यह कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी अब 'बैकुंठ चतुर्दशी' कहलायेगी और इस दिन व्रत पूर्वक जो पहले आपका पूजन करेगा, उसे बैकुंठ लोक की प्राप्ति होगी। भगवान शिव, इसी बैकुण्ठ चतुर्दशी को करोड़ो सूर्यों की कांति के समान वाला सुदर्शन चक्र, विष्णु जी को प्रदान करते हैं.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
इसी दिन शिव जी तथा विष्णु जी कहते हैं कि इस दिन स्वर्ग के द्वार खुले रहेंगें.मृत्युलोक में रहना वाला कोई भी व्यक्ति इस व्रत को करता है, वह अपना स्थान बैकुण्ठ धाम में सुनिश्चित करेगा.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #0b5394;">कथा ०२ </span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
एक बार की बात है कि नारद जी पृथ्वी-लोक से घूमकर बैकुण्ठ धाम पंहुचते हैं.भगवान विष्णु उन्हें आदरपूर्वक बिठाते हैं और प्रसन्न होकर उनके आने का कारण पूछते हैं.नारद जी कहते है कि - प्रभु! आपने अपना नाम कृपानिधान रखा है.इससे आपके जो प्रिय भक्त हैं वही तर पाते हैं.जो सामान्य नर- नारी है, वह वंचित रह जाते हैं.इसलिए आप मुझे कोई ऐसा सरल मार्ग बताएं, जिससे सामान्य भक्त भी आपकी भक्ति कर मुक्ति पा सकें.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
यह सुनकर विष्णु जी बोले - हे नारद! मेरी बात सुनो, कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को जो नर- नारी व्रत का पालन करेंगें और श्रद्धा - भक्ति से मेरी पूजा करेंगें, उनके लिए बैकुण्ठ धाम के द्वार साक्षात खुले होगें.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
इसके बाद विष्णु जी जय-विजय को बुलाते हैं और उन्हें कार्तिक चतुर्दशी को बैकुण्ठ धाम के द्वार खुले रखने का आदेश देते हैं.भगवान विष्णु कहते हैं कि इस दिन जो भी भक्त मेरा थोड़ा सा भी नाम लेकर पूजन करेगा, वह बैकुण्ठ धाम को प्राप्त करेगा.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #0b5394;">कथा ०३ </span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
एक धनेश्वर नामक ब्राह्मण था जो बहुत बुरे काम करता था | उसके ऊपर कई पाप थे | एक दिन वो गोदावरी नदी के स्नान के लिए गया उस दिन वैकुण्ठ चतुर्दशी थी | कई भक्तजन उस दिन पूजा अर्चना कर गोदावरी घाट पर आये थे उस दिन भीड़ में धनेश्वर उन सभी के साथ था इस प्रकार उन श्रद्धालु के स्पर्श के कारण धनेश्वर को भी पुण्य मिला | जब उसकी मृत्यु हो गई तब उसे यमराज लेकर गये और नरक में भेज दिया | तब भगवान विष्णु ने कहा यह बहुत पापी हैं पर इसने वैकुण्ठ चतुर्दशी के दिन गोदावरी स्नान किया और श्रद्धालु के पुण्य के कारण इसके सभी पाप नष्ट हो गये इसलिए इसे वैकुण्ठ धाम मिलेगा |</div>
<div style="text-align: justify;">
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</div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #073763; font-size: large;"><b>बैकुण्ठ चतुर्दशी पूजा विधि </b></span><br>
बैकुंठ चतुर्दशी के दिन भगवान विष्णु की विधिवत रुप से पूजा - अर्चना कि जाती है. धूप-दीप, चन्दन तथा पुष्पों से भगवान का पूजन तथा आरती कि जाती है. भगवत गीता व श्री सुक्त का पाठ किया जाता है तथा भगवान विष्णु की कमल पुष्पों के साथ पूजा करते हैं. श्री विष्णु का ध्यान व कथा श्रवण करने से समस्त पापों का नाश होता है. विष्णु जी के मंत्र जाप तथा स्तोत्र पाठ करने से बैकुण्ठ धाम की प्राप्ति होती है.<br>
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बैकुण्ठ चतुर्दशी व्रत का भी विशेष महात्म्य है इस दिन स्नानादि से निवृत्त होकर व्रत करना चाहिए शास्त्रों की मान्यता है कि जो एक हजार कमल पुष्पों से भगवान श्री हरि विष्णु का पूजन कर शिव की पूजा अर्चना करते हैं, वह भव-बंधनों से मुक्त होकर बैकुण्ठ धाम पाते हैं. मान्यता है कि कमल से पूजन करने पर भगवान को समग्र आनंद प्राप्त होता है तथा भक्त को शुभ फलों की प्राप्ति होती है. बैकुण्ठ चतुर्दशी को व्रत कर तारों की छांव में सरोवर, नदी इत्यादि के तट पर 14 दीपक जलाने चाहिए. बैकुण्ठाधिपति भगवान विष्णु को स्नान कराकर विधि विधान से भगवान श्री विष्णु पूजा अर्चना करनी चाहिए तथा उन्हें तुलसी पत्ते अर्पित करते हुए भोग लगाना चाहिए.<br>
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बैकुण्ठ चतुर्दशी की पूजा इस दिन सुबह-सवेरे दिनचर्या से निवृत होकर स्नान आदि करें.<br>
उसके बाद स्वच्छ वस्त्र धारण करें.<br>
भगवान विष्णु की विधिवत रुप से पूजा- अर्चना करें.<br>
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भगवान विष्णु को केसरिया चंदन मिले जल से स्नान कराएं।<br>
स्नान के बाद चंदन, पीले वस्त्र, पीले फूल वहीं शिवलिंग पर दूध मिले जल से स्नान के बाद सफेद आंकड़े के फूल, अक्षत, बिल्वपत्र और दूध से बनी मिठाईयों का भोग लगाकर चंदन धूप व गो घृत जलाकर भगवान विष्णु और शिव का नीचे लिखे मंत्रों से स्मरण करें - </div>
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<b><span style="color: #bf9000;">विष्णु मंत्र </span></b></div>
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<b><span style="color: #cc0000;">पद्मनाभोरविन्दाक्ष: पद्मगर्भ: शरीरभूत्।</span></b></div>
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<b><span style="color: #cc0000;">महर्द्धिऋद्धो वृद्धात्मा महाक्षो गरुडध्वज:।। </span></b></div>
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<b><span style="color: #cc0000;">अतुल: शरभो भीम: समयज्ञो हविर्हरि:।</span></b></div>
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<b><span style="color: #cc0000;">सर्वलक्षणलक्षण्यो लक्ष्मीवान् समितिञ्जय:।।</span></b></div>
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<b><span style="color: #cc0000;"><br></span></b></div>
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<b><span style="color: #bf9000;">शिव मंत्र </span></b></div>
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<b><span style="color: #cc0000;">वन्दे महेशं सुरसिद्धसेवितं भक्तै: सदा पूजितपादपद्ममम्।</span></b></div>
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<b><span style="color: #cc0000;">ब्रह्मेन्द्रविष्णुप्रमुखैश्च वन्दितं ध्यायेत्सदा कामदुधं प्रसन्नम्।। </span></b></div>
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मंत्र स्मरण के बाद खासतौर पर दोनों देवताओं को कमल फूल भी अर्पित करें।<br>
पूजा व मंत्र जप के बाद विष्णु व शिव या त्रिदेव की धूप, दीप व कर्पूर आरती कर घर के द्वार पर दीप प्रज्जवलित भी करें।<br>
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इस दिन सुबह व शाम के वक्त भगवान विष्णु व उनके बाद शिवलिंग या शिव की प्रतिमा की पंचोपचार पूजा करें। इस दिन विष्णु जी के मंत्र जाप तथा स्तोत्र पाठ करने से बैकुण्ठ धाम की प्राप्ति होती है.<br>
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Unknownnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6460435484229472119.post-44401261406374112392016-11-10T19:55:00.000+05:302020-11-25T09:15:40.401+05:30 प्रबोधिनी (देवोत्थान) एकादशी - कार्तिक शुक्ल एकादशी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<span style="color: #0b5394; font-size: large;"><b><u>देवोत्थान एकादशी - तुलसी विवाह</u></b></span></div>
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कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी देवोत्थान, तुलसी विवाह एवं भीष्म पंचक एकादशी के रूप में मनाई जाती है। दीपावली के बाद आने वाली कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवोत्थान एकादशी, देवउठनी एकादशी, देवउठान एकादशी, देवउठनी ग्यारस अथवा प्रबोधिनी एकादशी आदि नाम से भी जाना जाता है | कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को तुलसी पूजन का उत्सव पूरे भारत वर्ष में मनाया जाता है। कहा जाता है कि कार्तिक मास मे जो मनुष्य तुलसी का विवाह भगवान से करते हैं, उनके पिछलों जन्मो के सब पाप नष्ट हो जाते हैं।</div>
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शास्त्रों में वर्णित है कि आषाढ़ मास शुक्ल पक्ष की एकादशी देवशयनी एकादशी से भगवान विष्णु चार मास तक पाताललोक में शयन करते हैं और कार्तिक मास शुक्ल पक्ष की एकादशी को जागते हैं। संसार के पालनहार श्रीहरि विष्णु को समस्त मांगलिक कार्यों में साक्षी माना जाता है। पर इनकी निद्रावस्था में हर शुभ कार्य बंद कर दिया जाता है। इसलिए हिंदुओं के समस्त शुभ कार्य भगवान विष्णु के जाग्रत अवस्था में संपन्न करने का विधान धर्मशास्त्रों में वर्णित है। भगवान विष्णु के जागने का दिन है देवोत्थान एकादशी। इसी दिन से सभी शुभ कार्य, विवाह, उपनयन आदि शुभ मुहूर्त देखकर प्रारंभ किए जाते हैं।<br>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh527u-58Mg8oX62cAKJM1oiIz8bSeEMG1WESB__OMjf17j_E4m0DPj0TdxAdbCS_fzAzYSaJXsxmAtgvMQwq5z1nHdIzRUkJIykEpbynWvnGQ4ZMr8VmahxFSnRiHKJIMt8oqE_BRQ3a-T/s1600/devuthni-01_1448009263.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="277" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh527u-58Mg8oX62cAKJM1oiIz8bSeEMG1WESB__OMjf17j_E4m0DPj0TdxAdbCS_fzAzYSaJXsxmAtgvMQwq5z1nHdIzRUkJIykEpbynWvnGQ4ZMr8VmahxFSnRiHKJIMt8oqE_BRQ3a-T/s320/devuthni-01_1448009263.jpg" width="320"></a></div>
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आषाढ़ से कार्तिक तक के समय को चातुर्मास कहते हैं। इन चार महीनों में भगवान विष्णु क्षीरसागर की अनंत शैय्या पर शयन करते हैं, इसलिए कृषि के अलावा विवाह आदि शुभ कार्य इस समय तक बंद रहते हैं। धार्मिक दृष्टिकोण से ये चार मास भगवान की निद्राकाल का माना जाता है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सूर्य के मिथुन राशि में आने पर भगवान श्री हरि विष्णु शयन करते हैं और तुला राशि में सूर्य के जाने पर भगवान शयन कर उठते हैं। भगवान जब सोते हैं, तो चारों वर्ण की विवाह, यज्ञ आदि सभी क्रियाएं संपादित नहीं होती। यज्ञोपवीतादि संस्कार, विवाह, दीक्षा ग्रहण, यज्ञ, नूतन गृह प्रवेश, गोदान, प्रतिष्ठा एवं जितने भी शुभ कर्म हैं, वे चातुर्मास में त्याज्य माने गए हैं। आषाढ शुक्ल एकादशी को देव-शयन हो जाने के बाद से प्रारम्भ हुए चातुर्मास का समापन तक शुक्ल एकादशी के दिन देवोत्थान-उत्सव होने पर होता है। इस दिन वैष्णव ही नहीं, स्मार्त श्रद्धालु भी बडी आस्था के साथ व्रत करते हैं।</div>
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भगवान विष्णु के स्वरुप शालिग्राम और माता तुलसी के मिलन का पर्व तुलसी विवाह हिन्दू पंचांग के अनुसार कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को मनाया जाता है. </div>
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पद्मपुराण के पौराणिक कथानुसार राजा जालंधर की पत्नी वृंदा के श्राप से भगवान विष्णु पत्थर बन गए, जिस कारणवश प्रभु को शालिग्राम भी कहा जाता है और भक्तगण इस रूप में भी उनकी पूजा करते हैं.इसी श्राप से मुक्ति पाने के लिए भगवान विष्णु को अपने शालिग्राम स्वरुप में तुलसी से विवाह करना पड़ा था और उसी समय से कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की एकादशी को तुलसी विवाह का उत्सव मनाया जाता है। </div>
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पद्मपुराण के अनुसार कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की नवमी को तुलसी विवाह रचाया जाता है. इस दिन भगवान विष्णु की प्रतिमा बनाकर उनका विवाह तुलसी जी से किया जाता है. विवाह के बाद नवमी, दशमी तथा एकादशी को व्रत रखा जाता है और द्वादशी तिथि को भोजन करने के विषय में लिखा गया है. कई प्राचीन ग्रंथों के अनुसार शुक्ल पक्ष की नवमी को तुलसी की स्थापना की जाती है. कई श्रद्धालु कार्तिक माह की एकादशी को तुलसी विवाह करते हैं और द्वादशी को व्रत अनुष्ठान करते हैं.</div>
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देवोत्थान एकादशी के दिन मनाया जाने वाला तुलसी विवाह विशुद्ध मांगलिक और आध्यात्मिक प्रसंग है। दरअसल, तुलसी को विष्णु प्रिया भी कहते हैं। देवता जब जागते हैं, तो सबसे पहली प्रार्थना हरिवल्लभा तुलसी की ही सुनते हैं। इसीलिए तुलसी विवाह को देव जागरण के पवित्र मुहूर्त के स्वागत का आयोजन माना जाता है। तुलसी विवाह का सीधा अर्थ है, तुलसी के माध्यम से भगवान का आहावान। कार्तिक, शुक्ल पक्ष, एकादशी को तुलसी पूजन का उत्सव मनाया जाता है। वैसे तो तुलसी विवाह के लिए कार्तिक, शुक्ल पक्ष, नवमी की तिथि ठीक है, परन्तु कुछ लोग एकादशी से पूर्णिमा तक तुलसी पूजन कर पाँचवें दिन तुलसी विवाह करते हैं। आयोजन बिल्कुल वैसा ही होता है, जैसे हिन्दू रीति-रिवाज से सामान्य वर-वधु का विवाह किया जाता है।</div>
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देवप्रबोधिनी एकादशी के दिन मनाए जानेवाले इस मांगलिक प्रसंग के सुअवसर पर सनातन धर्मावलम्बी घर की साफ़-सफाई करते हैं और रंगोली सजाते हैं. शाम के समय तुलसी चौरा के पास गन्ने का भव्य मंडप बनाकर उसमें साक्षात् नारायण स्वरुप शालिग्राम की मूर्ति रखते हैं और फिर विधि-विधानपूर्वक उनके विवाह को संपन्न कराते हैं. मंडप, वर पूजा, कन्यादान, हवन और फिर प्रीतिभोज, सब कुछ पारम्परिक रीति-रिवाजों के साथ निभाया जाता है। इस विवाह में शालिग्राम वर और तुलसी कन्या की भूमिका में होती है। यह सारा आयोजन यजमान सपत्नीक मिलकर करते हैं। इस दिन तुलसी के पौधे को यानी लड़की को लाल चुनरी-ओढ़नी ओढ़ाई जाती है। तुलसी विवाह में सोलह श्रृंगार के सभी सामान चढ़ावे के लिए रखे जाते हैं। शालिग्राम </div>
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को दोनों हाथों में लेकर यजमान लड़के के रूप में यानी भगवान विष्णु के रूप में और यजमान की पत्नी तुलसी के पौधे को दोनों हाथों में लेकर अग्नि के फेरे लेते हैं। विवाह के पश्चात प्रीतिभोज का आयोजन किया जाता है। कार्तिक मास में स्नान करने वाले स्त्रियाँ भी कार्तिक शुक्ल एकादशी को शालिग्राम और तुलसी का विवाह रचाती है। समस्त विधि विधान पूर्वक गाजे बाजे के साथ एक सुन्दर मण्डप के नीचे यह कार्य सम्पन्न होता है विवाह के स्त्रियाँ गीत तथा भजन गाती है ।</div>
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कार्तिक माह की देवोत्थान एकादशी से ही विवाह आदि से संबंधित सभी मंगल कार्य आरम्भ हो जाते हैं. इसलिए इस एकादशी के दिन तुलसी विवाह रचाना उचित भी है. कई स्थानों पर विष्णु जी की सोने की प्रतिमा बनाकर उनके साथ तुलसी का विवाह रचाने की बात कही गई है. विवाह से पूर्व तीन दिन तक पूजा करने का विधान है. नवमी,दशमी व एकादशी को व्रत एवं पूजन कर अगले दिन तुलसी का पौधा किसी ब्राह्मण को</div>
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देना शुभ होता है। लेकिन लोग एकादशी से पूर्णिमा तक तुलसी पूजन करके पांचवे दिन तुलसी का विवाह करते हैं। तुलसी विवाह की यही पद्धति बहुत प्रचलित है।</div>
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शास्त्रों में कहा गया है कि जिन दंपत्तियों के संतान नहीं होती,वे जीवन में एक बार तुलसी का विवाह करके कन्यादान का पुण्य अवश्य प्राप्त करें।तुलसी विवाह करने से कन्यादान के समान पुण्यफल की प्राप्ति होती है.</div>
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कार्तिक शुक्ल एकादशी पर तुलसी विवाह का विधिवत पूजन करने से भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।हिन्दुओं के संस्कार अनुसार तुलसी को देवी रुप में हर घर में पूजा जाता है. इसकी नियमित पूजा से व्यक्ति को पापों से मुक्ति तथा पुण्य फल में वृद्धि मिलती है. यह बहुत पवित्र मानी जाती है और सभी </div>
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पूजाओं में देवी तथा देवताओं को अर्पित की जाती है. सभी कार्यों में तुलसी का पत्ता अनिवार्य माना गया है. प्रतिदिन तुलसी में जल देना तथा उसकी पूजा करना अनिवार्य माना गया है. तुलसी घर-आँगन के वातावरण को सुखमय तथा स्वास्थ्यवर्धक बनाती है.तुलसी के पौधे को पवित्र और पूजनीय माना गया है। तुलसी की नियमित पूजा से हमें सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है। </div>
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तुलसी विवाह के सुअवसर पर व्रत रखने का बड़ा ही महत्व है. आस्थावान भक्तों के अनुसार इस दिन श्रद्धा-भक्ति और विधिपूर्वक व्रत करने से व्रती के इस जन्म के साथ-साथ पूर्वजन्म के भी सारे पाप मिट जाते हैं और उसे पुण्य की प्राप्ति होती है.</div>
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<b><span style="color: #0b5394; font-size: large;"><u>तुलसी शालिग्राम विवाह कथा </u></span></b></div>
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प्राचीन काल में जालंधर नामक राक्षस ने चारों तरफ़ बड़ा उत्पात मचा रखा था। वह बड़ा वीर तथा पराक्रमी था। उसकी वीरता का रहस्य था, उसकी पत्नी वृंदा का पतिव्रता धर्म। उसी के प्रभाव से वह </div>
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सर्वजंयी बना हुआ था। जालंधर के उपद्रवों से परेशान देवगण भगवान विष्णु के पास गये तथा रक्षा की गुहार लगाई। उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु ने वृंदा का पतिव्रता धर्म भंग करने का निश्चय </div>
<div style="text-align: justify;">
किया। उधर, उसका पति जालंधर, जो देवताओं से युद्ध कर रहा था, वृंदा का सतीत्व नष्ट होते ही मारा गया। जब वृंदा को इस बात का पता लगा तो क्रोधित होकर उसने भगवान विष्णु को शाप दे दिया, </div>
<div style="text-align: justify;">
'जिस प्रकार तुमने छल से मुझे पति वियोग दिया है, उसी प्रकार तुम भी अपनी स्त्री का छलपूर्वक हरण होने पर स्त्री वियोग सहने के लिए मृत्यु लोक में जन्म लोगे।' यह कहकर वृंदा अपने पति के साथ </div>
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सती हो गई। जिस जगह वह सती हुई वहाँ तुलसी का पौधा उत्पन्न हुआ। </div>
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एक अन्य प्रसंग के अनुसार वृंदा ने विष्णु जी को यह शाप दिया था कि तुमने मेरा सतीत्व भंग किया है। अत: तुम पत्थर के बनोगे। विष्णु बोले, 'हे वृंदा! यह तुम्हारे सतीत्व का ही फल है कि तुम तुलसी बनकर मेरे साथ ही रहोगी। जो मनुष्य तुम्हारे साथ मेरा विवाह करेगा, वह परम धाम को प्राप्त होगा।' बिना तुलसी दल के शालिग्राम या विष्णु जी की पूजा अधूरी मानी जाती है। शालिग्राम और तुलसी का विवाह भगवान विष्णु और महालक्ष्मी के विवाह का प्रतीकात्मक विवाह है।</div>
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<b><span style="background-color: white; color: #0b5394;"><br></span></b></div>
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<b><span style="background-color: white; color: #0b5394;">कथा विस्तार से.... </span></b></div>
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एक लड़की थी जिसका नाम वृंदा था राक्षस कुल में उसका जन्म हुआ था बचपन से ही भगवान विष्णु जी की भक्त थी.बड़े ही प्रेम से भगवान की सेवा,पूजा किया करती थी.जब वे बड़ी हुई तो उनका विवाह राक्षस कुल में दानव राज जलंधर से हो गया,जलंधर समुद्र से उत्पन्न हुआ था.वृंदा बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी सदा अपने पति की सेवा किया करती थी.</div>
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एक बार देवताओ और दानवों में युद्ध हुआ जब जलंधर युद्ध पर जाने लगे तो वृंदा ने कहा - स्वामी आप युद्ध पर जा रहे है आप जब तक युद्ध में रहेगे में पूजा में बैठकर आपकी जीत के लिये अनुष्ठान करुगी,और जब तक आप वापस नहीं आ जाते में अपना संकल्प नही छोडूगी, जलंधर तो युद्ध में चले गये,और वृंदा व्रत का संकल्प लेकर पूजा में बैठ गयी,उनके व्रत के प्रभाव से देवता भी जलंधर को ना जीत सके सारे देवता जब हारने लगे तो भगवान विष्णु जी के पास गये.</div>
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सबने भगवान से प्रार्थना की तो भगवान कहने लगे कि वृंदा मेरी परम भक्त है में उसके साथ छल नहीं कर सकता पर देवता बोले - भगवान दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं है अब आप ही हमारी मदद कर सकते है.</div>
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भगवान ने जलंधर का ही रूप रखा और वृंदा के महल में पँहुच गये जैसे ही वृंदा ने अपने पति को देखा,वे तुरंत पूजा मे से उठ गई और उनके चरणों को छू लिए,जैसे ही उनका संकल्प टूटा,युद्ध में देवताओ ने जलंधर को मार दिया और उसका सिर काटकर अलग कर दिया,उनका सिर वृंदा के महल में गिरा जब वृंदा ने देखा कि मेरे पति का सिर तो कटा पडा है तो फिर ये जो मेरे सामने खड़े है ये कौन है? उन्होंने पूँछा आप कौन हो जिसका स्पर्श मैने किया,तब भगवान अपने रूप में आ गये पर वे कुछ ना बोल सके,वृंदा सारी बात समझ गई,उन्होंने भगवान को श्राप दे दिया आप पत्थर के हो जाओ,भगवान तुंरत पत्थर के हो गये सबी देवता हाहाकार करने लगे लक्ष्मी जी रोने लगे और प्राथना करने लगे यब वृंदा जी ने भगवान को वापस वैसा ही कर दिया और अपने पति का सिर लेकर वे सती हो गयी.</div>
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उनकी राख से एक पौधा निकला तब भगवान विष्णु जी ने कहा आज से इनका नाम तुलसी है,और मेरा एक रूप इस पत्थर के रूप में रहेगा जिसे शालिग्राम के नाम से तुलसी जी के साथ ही पूजा जायेगा और में बिना तुलसी जी के भोग स्वीकार नहीं करुगा.तब से तुलसी जी कि पूजा सभी करने लगे.और तुलसी जी का विवाह शालिग्राम जी के साथ कार्तिक मास में किया जाता है.देवउठनी एकादशी के दिन इसे तुलसी विवाह के रूप में मनाया जाता है|</div>
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<b><span style="color: #0b5394;"><u>कथा - २ </u></span></b></div>
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ऐसा माना जाता है कि देवप्रबोधिनी एकादशी पर भगवान विष्णु चार माह की नींद के बाद जागते हैं। धार्मिक दृष्टिकोण से प्रचलित है कि जब विष्णु भगवान ने शंखासुर नामक राक्षस को मारा था और उस विशेष परिश्रम के कारण उस दिन सो गए थे, उसके बाद वह कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागे थे, इसलिए इस दिन उनकी पूजा का विशेष विधान है।इस संबंध में एक कथा प्रचलित है कि </div>
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शंखासुर बहुत पराक्रमी दैत्य था इस वजह से लंबे समय तक भगवान विष्णु का युद्ध उससे चलता रहा। अंतत: घमासन युद्ध के बाद भाद्रपद मास की शुक्ल एकादशी को भगवान विष्णु ने दैत्य </div>
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शंखासुर को मारा था। इस युद्ध से भगवान विष्णु बहुत अधिक थक गए। </div>
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तब वे थकावट दूर करने के लिए क्षीरसागर लौटकर सो गए। वे वहां चार महिनों तक सोते रहे और कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को जागे। तब सभी देवी-देवताओं द्वारा भगवान विष्णु का पूजन किया </div>
<div style="text-align: justify;">
गया। इसी वजह से कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की इस एकादशी को देवप्रबोधिनी एकादशी कहा जाता है। इस दिन व्रत-उपवास करने का विधान है।</div>
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<b><span style="color: #0b5394;"><u>कथा - ३ </u></span></b></div>
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<b><span style="color: #0b5394;"><u><br></u></span></b></div>
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एक बार भगवान विष्णु से उनकी प्रिया लक्ष्मी जी ने आग्रह के भाव में कहा- हे भगवान, अब आप दिन रात जागते हैं। लेकिन, एक बार सोते हैं,तो फिर लाखों-करोड़ों वर्षों के लिए सो जाते हैं। तथा उस </div>
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समय समस्त चराचर का नाश भी कर डालते हैं। इसलिए आप नियम से विश्राम किया कीजिए। आपके ऐसा करने से मुझे भी कुछ समय आराम का मिलेगा।</div>
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लक्ष्मी जी की बात भगवान को उचित लगी। उन्होंने कहा, तुम ठीक कहती हो। मेरे जागने से सभी देवों और खासकर तुम्हें कष्ट होता है। तुम्हें मेरी सेवा से वक्त नहीं मिलता। इसलिए आज से मैं हर वर्ष</div>
<div style="text-align: justify;">
चार मास वर्षा ऋतु में शयन किया करुंगा। मेरी यह निद्रा अल्पनिद्रा और प्रलयकालीन महानिद्रा कहलाएगी।यह मेरी अल्पनिद्रा मेरे भक्तों के लिए परम मंगलकारी रहेगी। इस दौरान जो भी भक्त मेरे शयन </div>
<div style="text-align: justify;">
की भावना कर मेरी सेवा करेंगे, मैं उनके घर तुम्हारे समेत निवास करुंगा।</div>
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<b><span style="color: #0b5394;"><u>तुलसी विवाह व्रत कथा </u></span></b></div>
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<b><span style="color: #0b5394;"><u><br></u></span></b></div>
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प्राचीन ग्रंथों में तुलसी विवाह व्रत की अनेक कथाएं दी हुई हैं. उन कथाओं में से एक कथा निम्न है. इस कथा के अनुसार एक कुटुम्ब में ननद तथा भाभी साथ रहती थी. ननद का विवाह अभी नहीं हुआ </div>
<div style="text-align: justify;">
था. वह तुलसी के पौधे की बहुत सेवा करती थी. लेकिन उसकी भाभी को यह सब बिलकुल भी पसन्द नहीं था. जब कभी उसकी भाभी को अत्यधिक क्रोध आता तब वह उसे ताना देते हुए कहती कि जब </div>
<div style="text-align: justify;">
तुम्हारा विवाह होगा तो मैं तुलसी ही बारातियों को खाने को दूंगी और तुम्हारे दहेज में भी तुलसी ही दूंगी.</div>
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<br></div>
<div style="text-align: justify;">
कुछ समय बीत जाने पर ननद का विवाह पक्का हुआ. विवाह के दिन भाभी ने अपनी कथनी अनुसार बारातियों के सामने तुलसी का गमला फोड़ दिया और खाने के लिए कहा. तुलसी की कृपा से वह फूटा </div>
<div style="text-align: justify;">
हुआ गमला अनेकों स्वादिष्ट पकवानों में बदल गया. भाभी ने गहनों के नाम पर तुलसी की मंजरी से बने गहने पहना दिए. वह सब भी सुन्दर सोने - जवाहरात में बदल गए. भाभी ने वस्त्रों के स्थान पर </div>
<div style="text-align: justify;">
तुलसी का जनेऊ रख दिया. वह रेशमी तथा सुन्दर वस्त्रों में बदल गया.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
ननद की ससुराल में उसके दहेज की बहुत प्रशंसा की गई. यह बात भाभी के कानों तक भी पहुंची. उसे बहुत आश्चर्य हुआ. उसे अब तुलसी माता की पूजा का महत्व समझ आया. भाभी की एक लड़की थी. </div>
<div style="text-align: justify;">
वह अपनी लड़की से कहने लगी कि तुम भी तुलसी की सेवा किया करो. तुम्हें भी बुआ की तरह फल मिलेगा. वह जबर्दस्ती अपनी लड़की से सेवा करने को कहती लेकिन लड़की का मन तुलसी सेवा में नहीं </div>
<div style="text-align: justify;">
लगता था.</div>
<div style="text-align: justify;">
लड़की के बडी़ होने पर उसके विवाह का समय आता है. तब भाभी सोचती है कि जैसा व्यवहार मैने अपनी ननद के साथ किया था वैसा ही मैं अपनी लड़की के साथ भी करती हूं तो यह भी गहनों से लद </div>
<div style="text-align: justify;">
जाएगी और बारातियों को खाने में पकवान मिलेंगें. ससुराल में इसे भी बहुत इज्जत मिलेगी. यह सोचकर वह बारातियों के सामने तुलसी का गमला फोड़ देती है. लेकिन इस बार गमले की मिट्टी, मिट्टी ही रहती है. मंजरी तथा पत्ते भी अपने रुप में ही रहते हैं. जनेऊ भी अपना रुप नहीम बदलता है. सभी लोगों तथा बारातियों द्वारा भाभी की बुराई की जाती है. लड़की के ससुराल वाले भी लड़की की बुराई करते हैं.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
भाभी कभी ननद को नहीं बुलाती थी. भाई ने सोचा मैं बहन से मिलकर आता हूँ. उसने अपनी पत्नी से कहा और कुछ उपहार बहन के पास ले जाने की बात कही. भाभी ने थैले में ज्वार भरकर कहा कि </div>
<div style="text-align: justify;">
और कुछ नहीं है तुम यही ले जाओ. वह दुखी मन से बहन के पास चल दिया. वह सोचता रहा कि कोई भाई अपने बहन के घर जुवार कैसे ले जा सकता है. यह सोचकर वह एक गौशला के पास रुका और </div>
<div style="text-align: justify;">
जुवार का थैला गाय के सामने पलट दिया. तभी गाय पालने वाले ने कहा कि आप गाय के सामने हीरे-मोती तथा सोना क्यों डाल रहे हो. भाई ने सारी बात उसे बताई और धन लेकर खुशी से अपनी बहन </div>
<div style="text-align: justify;">
के घर की ओर चल दिया. दोनों बहन-भाई एक-दूसरे को देखकर अत्यंत प्रसन्न होते हैं.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<br>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #0b5394; font-size: large;"><b><u>तुलसी विवाह की पूजन विधि</u></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
भगवान विष्णु को चार मास की योग-निद्रा से जगाने के लिए घण्टा ,शंख,मृदंग आदि वाद्यों की मांगलिक ध्वनि के बीचये श्लोक पढकर जगाते हैं-</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">उत्तिष्ठोत्तिष्ठगोविन्द त्यजनिद्रांजगत्पते।</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">त्वयिसुप्तेजगन्नाथ जगत् सुप्तमिदंभवेत्॥</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">उत्तिष्ठोत्तिष्ठवाराह दंष्ट्रोद्धृतवसुन्धरे।</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">हिरण्याक्षप्राणघातिन्त्रैलोक्येमङ्गलम्कुरु॥</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
संस्कृत बोलने में असमर्थ सामान्य लोग-उठो देवा, बैठो देवा कहकर श्रीनारायण को उठाएं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
श्रीहरिको जगाने के पश्चात् तुलसी विवाह के लिए तुलसी के पौधे का गमले को गेरु आदि से सजाकर उसके चारों ओर ईख (गन्ने) का मंडप बनाकर उसके ऊपर ओढऩी या सुहाग की प्रतीक चुनरी ओढ़ाते हैं। गमले को साड़ी में लपेटकर तुलसी को चूड़ी पहनाकर उनका श्रंगार करते हैं। तत्पश्चात तुलसी के पौधे को अर्ध्य दे कर शुद्ध घी का दीया जलाना चाहिए. धूप, सिंदूर, चंदन लगाना चाहिए. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
श्री गणेश सहित सभी देवी-देवताओं का विधिवत पूजन करें तथा श्री तुलसी एवं शालिग्रामजी का षोडशोपचारविधि से पूजा करें। पूजन के करते समय तुलसी मंत्र (तुलस्यै नम:) का जप करें। फिर अनेक प्रकार के फलों के साथ नैवेद्य (भोग) निवेदित करें। तथा पुष्प अर्पित करने चाहिए.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
इसके बाद एक नारियल दक्षिणा के साथ टीका के रूप में रखें। भगवान शालिग्राम की मूर्ति का सिंहासन हाथ में लेकर तुलसीजी की सात परिक्रमा कराएं। जैसे विवाह में जो सभी रीति-रिवाज होते हैं उसी तरह तुलसी विवाह के सभी कार्य किए जाते हैं। विवाह से संबंधित मंगल गीत भी गाए जाते हैं।आरती के पश्चात विवाहोत्सव पूर्ण किया जाता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<br>
<div style="text-align: justify;">
तुलसी पूजा करने के कई विधान दिए गए हैं. उनमें से एक तुलसी नामाष्टक का पाठ करने का विधान दिया गया है. तुलसी जी को कई नामों से पुकारा जाता है. इनके आठ नाम मुख्य हैं - वृंदावनी, वृंदा, विश्व पूजिता, विश्व पावनी, पुष्पसारा, नन्दिनी, कृष्ण जीवनी और तुलसी. जो व्यक्ति तुलसी नामाष्टक का नियमित पाठ करता है उसे अश्वमेघ यज्ञ के समान पुण्य फल मिलता है. इस नामाष्टक का पाठ पूरे विधान से करना चाहिए. विशेष रुप से कार्तिक माह में इस पाठ को अवश्य ही करना चाहिए.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #bf9000;">नामाष्टक पाठ |</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">वृन्दा वृन्दावनी विश्वपूजिता विश्वपावनी.</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">पुष्पसारा नन्दनीच तुलसी कृष्ण जीवनी.</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">एतभामांष्टक चैव स्तोत्रं नामर्थं संयुतम.</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">य: पठेत तां च सम्पूज सौsश्रमेघ फलंलमेता..</span></b></div>
<br>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<br>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
संभव हो तो उपवास रखें अन्यथा केवल एक समय फलाहार ग्रहण करें। इस एकादशी में रातभर जागकर हरि नाम-संकीर्तन करने से भगवान विष्णु अत्यन्त प्रसन्न होते हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
किसी-किसी प्रांत में इस दिन ईख के खेतों में जाकर सिंदूर, अक्षत आदि से ईख की पूजा करते हैं और उसके बाद इस दिन पहले-पहल ईख चूसते हैं। इस दिन भगवान का कीर्तन करना चाहिए, साथ ही शंख, घड़ियाल या थाली बजाकर इस प्रकार भगवान को जगाना चाहिए,</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #0b5394; font-size: large;"><b><u>महिमा</u></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
पद्मपुराणके उत्तरखण्डमें वर्णित एकादशी-माहात्म्य के अनुसार श्री हरि-प्रबोधिनी (देवोत्थान) एकादशी का व्रत करने से एक हजार अश्वमेध यज्ञ तथा सौ राजसूय यज्ञों का फल मिलता है। इस </div>
<div style="text-align: justify;">
परमपुण्यप्रदाएकादशी के विधिवत व्रत से सब पाप भस्म हो जाते हैं तथा व्रती मरणोपरान्त बैकुण्ठ जाता है। इस एकादशी के दिन भक्त श्रद्धा के साथ जो कुछ भी जप-तप, स्नान-दान, होम करते हैं,वह </div>
<div style="text-align: justify;">
सब अक्षय फलदायक हो जाता है। देवोत्थान एकादशी के दिन व्रतोत्सवकरना प्रत्येक सनातनधर्मी का आध्यात्मिक कर्तव्य है। इस व्रत को करने वाला दिव्य फल प्राप्त करता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
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<br></div>
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<br></div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
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Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/01386018780415040483noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6460435484229472119.post-83813694161981365412016-11-10T19:54:00.001+05:302016-11-10T19:54:50.777+05:30 तुलसी विवाह ( प्रबोधिनी एकादशी विशेष )<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
कार्तिक मास की देव प्रबोधिनी एकादशी को तुलसी विवाह के रूप में मनाया जाता है.उस दिन तुलसी जी का विवाह शलिग्राम भगवान से किया जाता है. इसमें चमत्कारिक गुण मौजूद होते हैं. कार्तिक शुक्ल पक्ष की देवउठनी अथवा देवोत्थान एकादशी के साथ ही विवाह आदि मंगल कार्यों का आरम्भ हो जाता है. प्रत्येक आध्यात्मिक कार्य में तुलसी की उपस्थिति बनी रहती है. वर्ष भर तुलसी का उपयोग होता है. सारे माहों में कार्तिक माह में तुलसी पूजन विशेष रुप से शुभ माना गया है. वैष्णव विधि-विधानों में तुलसी विवाह तथा तुलसी पूजन एक मुख्य त्यौहार माना गया है. कार्तिक माह में सुबह स्नान आदि से निवृत होकर तांबे के बर्तन में जल भरकर तुलसी के पौधे को जल दिया जाता है. संध्या समय में तुलसी के चरणों में दीपक जलाया जाता है. कार्तिक के पूरे माह यह क्रम चलता है. इस माह की पूर्णिमा तिथि को दीपदान की पूर्णाहुति होती है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पदम पुराण में कहा गया है कि तुलसी जी के दर्शन मात्र से सम्पूर्ण पापों की राशि नष्ट हो जाती है<br />
<a name='more'></a>,उनके स्पर्श से शरीर पवित्र हो जाता है,उन्हे प्रणाम करने से रोग नष्ट हो जाते है,सींचने से मृत्यु दूर भाग जाती है,तुलसी जी का वृक्ष लगाने से भगवान की सन्निधि प्राप्त होती है,और उन्हे भगवान के चरणो में चढाने से मोक्ष रूप महान फल की प्राप्ति होती है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiKHZDXrvfLblcSKA8LrwS99jWizBHVcpxBgXVG178GyL3IA6HZULyLGDCSNeIPmi0jEr95_z8QMw6m-yrMKy806-BAjxPc4WzRFNp6kY9Cwy5qqrEdRoXwBkRkIJS-mHV-ZdjjlH2z1bgb/s1600/devutani-01_1448005518.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="277" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiKHZDXrvfLblcSKA8LrwS99jWizBHVcpxBgXVG178GyL3IA6HZULyLGDCSNeIPmi0jEr95_z8QMw6m-yrMKy806-BAjxPc4WzRFNp6kY9Cwy5qqrEdRoXwBkRkIJS-mHV-ZdjjlH2z1bgb/s320/devutani-01_1448005518.jpg" width="320" /></a></div>
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अंत काल के समय ,तुलसीदल या आमलकी को मस्तक या देह पर रखने से नरक का द्वार , आत्मा के लिए बंद हो जाता है</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">धात्री फलानी तुलसी ही अन्तकाले भवेद यदि</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">मुखे चैव सिरास्य अंगे पातकं नास्ति तस्य वाई </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #0b5394; font-size: large;"> तुलसी नामाष्टक</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
तुलसी को देवी रुप में हर घर में पूजा जाता है. इसकी नियमित पूजा से व्यक्ति को पापों से मुक्ति तथा पुण्य फल में वृद्धि मिलती है. यह बहुत पवित्र मानी जाती है और सभी पूजाओं में देवी तथा देवताओं को अर्पित की जाती है. तुलसी पूजा करने के कई विधान दिए गए हैं. उनमें से एक तुलसी नामाष्टक का पाठ करने का विधान दिया गया है. जो व्यक्ति तुलसी नामाष्टक का नियमित पाठ करता है उसे अश्वमेघ यज्ञ के समान पुण्य फल मिलता है. इस नामाष्टक का पाठ पूरे विधान से करना चाहिए. विशेष रुप से कार्तिक माह में इस पाठ को अवश्य ही करना चाहिए.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #bf9000;">नामाष्टक पाठ</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">वृन्दा वृन्दावनी विश्वपूजिता विश्वपावनी.</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">पुष्पसारा नन्दनीच तुलसी कृष्ण जीवनी.</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">एतभामांष्टक चैव स्तोत्रं नामर्थं संयुतम.</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">य: पठेत तां च सम्पूज सौsश्रमेघ फलंलमेता..</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
<b>तुलसी जी के आठ नाम बताये गए है -</b></div>
<div style="text-align: justify;">
वृंदा, वृंदावनि, विश्व पूजिता, विश्व पावनी, पुष्पसारा, नन्दिनी, तुलसी और कृष्ण जीवनी</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #bf9000;">तुलसीजी के नामो के अर्थ </span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
१. वृंदा :- सभी वनस्पति व वृक्षों की आधि देवी</div>
<div style="text-align: justify;">
२. वृन्दावनी :- जिनका उदभव व्रज में हुआ</div>
<div style="text-align: justify;">
३. विश्वपूजिता :- समस्त जगत द्वारा पूजित</div>
<div style="text-align: justify;">
४. विश्व -पावनी :- त्रिलोकी को पावन करनेवाली</div>
<div style="text-align: justify;">
५. पुष्पसारा :- हर पुष्प का सार</div>
<div style="text-align: justify;">
६. नंदिनी :- ऋषि मुनियों को आनंद प्रदान करनेवाली</div>
<div style="text-align: justify;">
७. कृष्ण-जीवनी :- श्री कृष्ण की प्राण जीवनी</div>
<div style="text-align: justify;">
८. तुलसी :- अद्वितीय</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #0b5394; font-size: large;"> तुलसी जी का महत्व</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
तुलसी के दर्शन प्रतिदिन करने चाहिए. क्योंकि तुलसी को पाप का नाश करने वाली माना गया है. इसका पूजन करना श्रेष्ठ होता है. इसका पूजन मोक्ष देने वाला होता है. समस्त पूजा तथा धार्मिक कृत्यों में तुलसी का उपयोग किया जाता है. इसके पत्ते से पूजा, व्रत, यज्ञ, जप, होम तथा हवन करने का पुण्य मिलता है. तुलसी की दो किस्में पाई जाती हैं. पहली "कृष्ण तुलसी",जिन्हें श्यामा तुलसी भी कहा जाता है. दूसरी राम या रामा तुलसी होती है. दोनो प्रकार की तुलसी में केवल वर्ण भेद ही होता है अन्यथा गुणों में समानता होती है।इन दोनों तुलसी में से कृष्ण तुलसी सर्वाधिक प्रिय मानी गई है. भगवान श्रीकृष्ण को तुलसी से बेहद लगाव था. श्रीकृष्ण जी को यदि तुलसी के पत्ते नहीं चढा़ए गए तो उनका पूजन अधूरा समझा जाता है. कार्तिक माह में विष्णु जी का पूजन तुलसी दल से करने का बडा़ ही माहात्म्य है. कार्तिक माह में यदि तुलसी विवाह किया जाए तो कन्यादान के समान पुण्य की प्राप्ति होती है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #bf9000;">श्री तुलसी प्रणाम</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #cc0000;"><b>वृन्दायी तुलसी -देव्यै</b></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #cc0000;"><b>प्रियायाई केसवास्य च</b></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #cc0000;"><b>विष्णु -भक्ति -प्रदे देवी सत्यवात्याई नमो नमः"</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैं श्री वृंदा देवी को प्रणाम करती हूँ जो तुलसी देवी हैं , जो भगवान् केशव की अति प्रिय हैं - हे देवी !आपके प्रसाद स्वरूप , प्राणी मात्र में भक्ति भाव का उदय होता है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #bf9000;">श्री तुलसी प्रदक्षिणा मंत्र </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">यानि कानि च पापानि जन्मान्तर कृतानि चतानि तानि प्रनश्यन्ति प्रदक्षिणायाम् पदे पदे</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
आपकी परिक्रमा का एक एक पद समस्त पापों का नाश कर्ता है</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #0b5394; font-size: large;"> तुलसी जी की आरती</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">तुलसी महारनी नमो-नमो, हरि कि पटरानी नमो-नमो</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">धन तुलसी पुरन तप कीनो शालिग्राम बनी पटरानी</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">जाके पत्र मंजर कोमल, श्रीपति कमल चरण लपटानी</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">धूप-दीप -नवेध आरती , पुष्पन कि वर्षा बरसानी</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">छप्पन भोग ,छत्तीसो व्यंजन ,बिन तुलसी हरि एक ना मानी</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">सभी सुखी मैया, तेरो यश गावे , भक्ति दान दीजै महारानी</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">नमो-नमो तुलसी महरानी , नमो-नमो तुलसी महारानी</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #0b5394; font-size: large;"> तुलसी महिमा</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
तुलसी का प्रतिदिन दर्शन करने से पापों से मुक्ति मिलती है। यानी रोजाना तुलसी का पूजन करना मोक्षदायक माना गया है.यही नहीं तुलसी पत्र से पूजा करने से भी यज्ञ, जप, हवन करने का पुण्य प्राप्त होता है। पर यह तभी संभव है, जब आप पूरी आस्था के साथ तुलसी जी की सेवा कर पाते हैं। पूजा का सही-विधान जानने के साथ-साथ तुलसी के प्रति आदर रखना भी जरूरी है। पद्म पुराण में कहा गया है की नर्मदा दर्शन गंगा स्नान और तुलसी पत्र का संस्पर्श ये तीनो समान पुण्य कारक है .</div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;"><br /></span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">दर्शनं नार्मदयास्तु गंगास्नानं विशांवर</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">तुलसी दल संस्पर्श: सम्मेत त्त्रयं"</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
ऐसा भी वर्णन आता है की जो लोग प्रातः काल में गत्रोत्थान पूर्वक अन्य वस्तु का दर्शन ना कर सर्वप्रथम तुलसी का दर्शन करते है उनका अहोरात्रकृत पातक सघ:विनष्ट हो जाता है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
तुलसी दल और मंजरी चयन समय कुछ बातों का ख्याल रखें।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
तुलसी की मंजरी सब फूलों से बढ़कर मानी जाती है। मंजरी तोड़ते समय उसमें पत्तियों का रहना भी आवश्यक माना गया है। तुलसी का एक-एक पत्ता तोड़ने के बजाय पत्तियों के साथ अग्रभाग को तोड़ना चाहिए. यही शास्त्रसम्मत भी है.प्राय: पूजन में बासी फूल और पानी चढ़ाना निषेध है, पर तुलसीदल और गंगाजल कभी बासी नहीं होते। तीर्थों का जल भी बासी नहीं होता।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
निम्न मंत्र को बोलते हुए पूज्यभाव से तुलसी के पौधे को हिलाए बिना तुलसी के अग्रभाग को तोडे़. इससे पूजा का फल कई गुना बढ़ जाता है.</div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">तुलस्यमृतजन्मासि सदा त्वं केशवप्रिया।</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">चिनोमि केशवस्यार्थे वरदा भव शोभने।।</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">त्वदंगसंभवै: पत्रै: पूजयामि यथा हरिमृ।</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #cc0000;">तथा कुरु पवित्रांगि! कलौ मलविनाशिनि।।</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
ब्रह्म वैवर्त पुराण में श्री भगवान तुलसी के प्रति कहते है - पूर्णिमा, अमावस्या , द्वादशी, सूर्यसंक्राति , मध्यकाल रात्रि दोनों संध्याए अशौच के समय रात में सोने के पश्चात उठकर,स्नान किए बिना,शरीर के किसी भाग में तेल लगाकर जो मनुष्य तुलसी दल चयन करता है वह मानो श्रीहरि के मस्तक का छेदन करता है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
द्वादशी तिथि को तुलसी चयन कभी ना करे, क्योकि तुलसी भगवान कि प्रेयसी होने के कारण हरि के दिन -एकादशी को निर्जल व्रत करती है.अतः द्वादशी को शैथिल्य,दौबल्य के कारण तोडने पर तुलसी को कष्ट होता है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
तुलसी चयन करके हाथ में रखकर पूजा के लिए नहीं ले जाना चाहिये शुद्ध पात्र में रखकर अथवा किसी पत्ते पर या टोकरी में रखकर ले जाना चाहिये.</div>
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<div style="text-align: justify;">
इतने निषिद्ध दिवसों में तुलसी चयन नहीं कर सकते,और बिना तुलसी के भगवत पूजा अपूर्ण मानी जाती है अतः वारह पुराण में इसकी व्यवस्था के रूप में निर्दिष्ट है कि निषिद्ध काल में स्वतः झडकर गिरे हुए तुलसी पत्रों से पूजन करे.और अपवाद स्वरुप शास्त्र का ऐसा निर्देश है कि शालग्राम कि नित्य पूजा के लिए निषिद्ध तिथियों में भी तुलसी दल का चयन किया जा सकता है.</div>
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<span style="color: #0b5394; font-size: large;"><b style="background-color: white;"> राधा रानी जी ने कैसे कि तुलसी सेवा</b></span></div>
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एक बार राधा जी सखी से बोली - सखी ! तुम श्री कृष्ण की प्रसन्नता के लिए किसी देवता की ऐसी पूजा बताओ जो परम सौभाग्यवर्द्धक हो.</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
तब समस्त सखियों में श्रेष्ठ चन्द्रनना ने अपने हदय में एक क्षण तक कुछ विचार किया. फिर बोली चंद्रनना ने कहा- राधे ! परम सौभाग्यदायक और श्रीकृष्ण की भी प्राप्ति के लिए वरदायक व्रत है -"तुलसी की सेवा" तुम्हे तुलसी सेवन का ही नियम लेना चाहिये. क्योकि तुलसी का यदि स्पर्श अथवा ध्यान, नाम, संकीर्तन, आरोपण, सेचन, किया जाये. तो महान पुण्यप्रद होता है. हे राधे ! जो प्रतिदिन तुलसी की नौ प्रकार से भक्ति करते है.वे कोटि सहस्त्र युगों तक अपने उस सुकृत्य का उत्तम फल भोगते है.</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मनुष्यों की लगायी हुई तुलसी जब तक शाखा, प्रशाखा, बीज, पुष्प, और सुन्दर दलों, के साथ पृथ्वी पर बढ़ती रहती है तब तक उनके वंश मै जो-जो जन्म लेता है, वे सभी हो हजार कल्पों तक श्रीहरि के धाम में निवास करते है. जो तुलसी मंजरी सिर पर रखकर प्राण त्याग करता है. वह सैकड़ो पापों से युक्त क्यों न हो यमराज उनकी ओर देख भी नहीं सकते. इस प्रकार चन्द्रनना की कही बात सुनकर रासेश्वरी श्री राधा ने साक्षात् श्री हरि को संतुष्ट करने वाले तुलसी सेवन का व्रत आरंभ किया.</div>
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श्री राधा रानी का तुलसी सेवा व्रत</div>
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केतकी वन में सौ हाथ गोलाकार भूमि पर बहुत ऊँचा और अत्यंत मनोहर श्री तुलसी का मंदिर बनवाया, जिसकी दीवार सोने से जड़ी थी. और किनारे-किनारे पद्मरागमणि लगी थी, वह सुन्दर-सुन्दर पन्ने हीरे और मोतियों के परकोटे से अत्यंत सुशोभित था, और उसके चारो ओर परिक्रमा के लिए गली बनायीं गई थी जिसकी भूमि चिंतामणि से मण्डित थी. ऐसे तुलसी मंदिर के मध्य भाग में हरे पल्लवो से सुशोभित तुलसी की स्थापना करके श्री राधा ने अभिजित मुहूर्त में उनकी सेवा प्रारम्भ की.</div>
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श्री राधा जी ने आश्र्विन शुक्ला पूर्णिमा से लेकर चैत्र पूर्णिमा तक तुलसी सेवन व्रत का अनुष्ठान किया. व्रत आरंभ करने उन्होंने प्रतिमास पृथक-पृथक रस से तुलसी को सींचा ."कार्तिक में दूध से", "मार्गशीर्ष में ईख के रस से",पौष में द्राक्षा रस से", "माघ में बारहमासी आम के रस से", "फाल्गुन मास में अनेक वस्तुओ से मिश्रित मिश्री के रस से" और "चैत्र मास में पंचामृत से"उनका सेचन किया .और वैशाख कृष्ण प्रतिपदा के दिन उद्यापन का उत्सव किया.</div>
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उन्होंने दो लाख ब्राह्मणों को छप्पन भोगो से तृप्त करके वस्त्र और आभूषणों के साथ दक्षिणा दी. मोटे-मोटे दिव्य मोतियों का एक लाख भार और सुवर्ण का एक कोटि भार श्री गर्गाचार्य को दिया . उस समय आकाश से देवता तुलसी मंदिर पर फूलो की वर्षा करने लगे.</div>
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उसी समय सुवर्ण सिंहासन पर विराजमान हरिप्रिया तुलसी देवी प्रकट हुई . उनके चार भुजाएँ थी कमल दल के समान विशाल नेत्र थे सोलह वर्ष की सी अवस्था और श्याम कांति थी .मस्तक पर हेममय किरीट प्रकाशित था और कानो में कंचनमय कुंडल झलमला रहे थे गरुड़ से उतरकर तुलसी देवी ने रंग वल्ली जैसी श्री राधा जी को अपनी भुजाओ से अंक में भर लिया और उनके मुखचन्द्र का चुम्बन किया .</div>
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<br /></div>
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तुलसी बोली -कलावती राधे ! मै तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ, यहाँ इंद्रिय, मन, बुद्धि, और चित् द्वारा जो जो मनोरथ तुमने किया है वह सब तुम्हारे सम्मुख सफल हो.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इस प्रकार हरिप्रिया तुलसी को प्रणाम करके वृषभानु नंदिनी राधा ने उनसे कहा देवी! गोविंद के युगल चरणों में मेरी अहैतु की भक्ति बनी रहे. तब तथास्तु कहकर हरिप्रिया अंतर्धान हो गई. इस प्रकार पृथ्वी पर जो मनुष्य श्री राधिका के इस विचित्र उपाख्यान को सुनता है वह भगवान को पाकर कृतकृत्य हो जाता है .</div>
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<br /></div>
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<b><span style="background-color: white; color: #0b5394; font-size: large;"> तुलसी भक्षण (खाने) के अद्भुत लाभ </span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="background-color: white; color: #0b5394; font-size: large;"><br /></span></b></div>
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१. गरुड़ पुराण में कहा गया है कि किसी के मुख मस्तक अथवा कर्णद्वय में तुलसी पत्र को देखकर यमराज अथवा उसके पापों को विदुरित कर देते है.तुलसी भक्षण करने से चंद्रायण, तप्तकृच्छ, ब्रह्कुर्त्य व्रत, से भी अधिक देह शुद्ध होती है.</div>
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<br /></div>
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२. स्कंध पुराण में कहा गया है - स्वयं श्री विष्णु स्वर्णमय अथवा पद्म राग मनिमय यहाँ तक कि रत्न खचित विविध शुभ पुष्प को परित्याग करके तुलसी पत्र ग्रहण करते है व्याध भी यदि तुलसी पत्र भक्षण करके देह त्याग करता है तो उसके देह्स्थ पाप भस्मीभूत हो जाते है.जिस प्रकार शुक्ल और कृष्ण वर्ण जल अर्थात गंगा और यमुना का जल पातक को विनष्ट करता है उसी प्रकार रामा और श्यामा तुलसी पत्र भक्षण से सर्वभिलाषा सिद्ध होती है .</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
३. - जैसे अग्नि समस्त वन को जला देती है उसी प्रकार तुलसी भक्षण समस्त पापों को जला देता है.अमृत से आवला और तुलसी श्री हरि की वल्लभा है इनदोनो के स्मरण कीर्तन ध्यान और भक्षण करने से समस्त कामनाये पूर्ण होती है</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
४. मृत्यु काल के समय मुख मस्तक और शरीर में आमलकी की फल और तुलसी पत्र विघमान हो तो कभी भी उसकी दुर्गति नहीं हो सकती. यदि कोई मानव पाप लिप्त होता है और कभी पुण्य अर्जन नहीं किया तो वह भी तुलसी भक्षण करके मुक्त हो जाता है.स्वयं भगवान ने कहा है कि शरीर त्याग करने से पूर्व यदि मुख में तुलसी पत्र डाल दिया जाये तो वह मेरे लोक में जाता है. </div>
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<br /></div>
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५. - ऐसा भी वर्णन आता है कि द्वादशी तिथि में उपवास करने पर दिन में पारण करते समय तुलसी पत्र भक्षण करने से अष्ट अश्वमेघ यज्ञानुष्ठान का फल मिल जाता है.</div>
</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/01386018780415040483noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6460435484229472119.post-78233489131035406072016-11-10T19:54:00.000+05:302016-11-10T19:54:23.689+05:30भीष्म पंचक व्रत<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #0b5394; font-size: large;"><u>भीष्म पंचक <span style="text-align: start;"> </span><span style="text-align: start;">व्रत</span></u></span></b></div>
</div>
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<div style="text-align: justify;">
यह व्रत कार्तिक शुक्ल एकादशी से प्रारम्भ होकर पूर्णिमा तक चलता है, लिहाजा इसे भीष्म पंचक कहा जाता है। कार्तिक स्नान करने वाली स्त्रियाँ या पुरूष निराहार रहकर व्रत करते हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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<b><u><span style="color: #0b5394;">कथा</span></u></b></div>
<div style="text-align: justify;">
महाभारत का युद्ध समाप्त होने पर जिस समय भीष्म पितामह सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा मे शरशैया पर शयन कर रहे थे। तक भगवान कृष्ण पाँचो पांडवों को साथ लेकर उनके पास गये थे। ठीक अवसर मानकर युधिष्ठर ने भीष्म पितामह से उपदेश देने का आग्रह किया। भीष्म ने पाँच दिनो तक राज धर्म, वर्णधर्म मोक्षधर्म आदि पर उपदेश दिया था । उनका उपदेश सुनकर श्रीकृष्ण सन्तुष्ट हुए और बोले, ”पितामह! आपने शुक्ल एकादशी से पूर्णिमा तक पाँच दिनों में जो धर्ममय उपदेश दिया है उससे मुझे बडी प्रसन्नता हुई है। मैं इसकी स्मृति में आपके नाम पर भीष्म पंचक व्रत स्थापित करता हूँ । जो लोग इसे करेंगे वे जीवन भर विविध सुख भोगकर अन्त में मोक्ष प्राप्त करेंगे।</div>
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<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjdTGVD5eamfqN6I136Ks74Od00jki2l_7CbieLgcs2Lfj8vm3oPQU1b1RrzoP-kUgYQDRMLTQvzuOiwJf1kdRn5GvPxAmifuxvMqA8_WZeAUkZxhvQ4dGMWpNm5y-39-_u8bdc2BdYQc1c/s1600/2015_11image_15_20_5383361746643_d-ll.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="242" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjdTGVD5eamfqN6I136Ks74Od00jki2l_7CbieLgcs2Lfj8vm3oPQU1b1RrzoP-kUgYQDRMLTQvzuOiwJf1kdRn5GvPxAmifuxvMqA8_WZeAUkZxhvQ4dGMWpNm5y-39-_u8bdc2BdYQc1c/s320/2015_11image_15_20_5383361746643_d-ll.jpg" width="320" /></a></div>
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<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #0b5394;"><b><u>विधान</u></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #cc0000;"> "ऊँ नमो भगवने वासुदेवाय"</span></b> मंत्र से भगवान कृष्ण की पूजा की जाती है । पाँच दिनों तक लगातार घी का दीपक जलता रहना चाहिए।<b><span style="color: #cc0000;"> "ऊँ विष्णुवे नमः स्वाहा" </span></b>मंत्र से घी, तिल और जौ की १०८ आहुतियां देते हुए हवन करना चाहिए।</div>
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Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/01386018780415040483noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6460435484229472119.post-25736664363360522392016-11-06T05:49:00.000+05:302016-11-06T05:49:33.185+05:30 सूर्य षष्ठी (छठ पर्व)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
सनातन धर्म में कार्तिक शुक्ल की षष्ठी तिथि को सूर्य षष्ठी ( छठ पर्व ) के रूप में मनाया जाता है। वैसे तो हिंदू धर्म में भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की षष्ठी को भी सूर्य षष्ठी व्रत के रूप में मान्यता प्राप्त है परंतु कार्तिक शुक्ल की सूर्य षष्ठी "छठ" नाम से भारत में काफी लोकप्रिय है। "छठ" षष्टी का ही अपभ्रंश है अतः छठ पर्व मूलतः सूर्य की आराधना का पर्व है, जिसे हिंदू धर्म में विशेष स्थान प्राप्त है। हिंदू धर्म के देवताओं में सूर्य ऐसे देवता हैं जिन्हें मूर्त रूप में देखा जा सकता है। दीपावली के छठे दिन से शुरू होने वाला छठ का पर्व चार दिनों तक चलता है। इन चारों दिन श्रद्धालु भगवान सूर्य की आराधना करके वर्षभर सुखी, स्वस्थ और निरोगी होने की कामना करते हैं। चार दिनों के इस पर्व के पहले दिन घर की साफ-सफाई की जाती है।यह व्रत बड़े नियम व निष्ठा से किया जाता है| इसमें तीन दिन के कठोर उपवास का विधान है| इस व्रत को करने वाली स्त्रियों को पंचमी को एक बार नमक रहित भोजन करना पड़ता है| षष्ठी को निर्जल रहकर व्रत करना पड़ता है| षष्ठी को अस्त होते हुए सूरज को विधिपूर्वक पूजा करके अर्ध्य देते है| सप्तमी के दिन प्रातकाल नदी या तालाब पर जाकर स्नान करना होता है| सूर्य उदय होते ही अर्ध्य देकर जाल ग्रहण करके व्रत को खोलना होता है| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
भारत में सूर्योपासना ऋग वैदिक काल से होती आ रही है। सूर्य और इसकी उपासना की चर्चा विष्णु पुराण, भगवत पुराण, ब्रह्मा वैवर्त पुराण आदि में विस्तार से की गई है। मध्य काल तक छठ सूर्योपासना के व्यवस्थित पर्व के रूप में प्रतिष्ठित हो गया, जो अभी तक चला आ रहा है। तालाब में पूजा करते हैं।</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiSzLNzLyED7No5fAf7ijuv5OQoGrSUR7UNmNc7s_wtiO5FbFNgxFKSU3-BLZbWfU7KnJ_x5FWqRE1px6DGtISsDtfFK2mnxHgzjCxVdG2Cw1M4FwSEk4ur3lEqXrkrVzqFhuQCAqz2FlHp/s1600/surya-dev.gif" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="310" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiSzLNzLyED7No5fAf7ijuv5OQoGrSUR7UNmNc7s_wtiO5FbFNgxFKSU3-BLZbWfU7KnJ_x5FWqRE1px6DGtISsDtfFK2mnxHgzjCxVdG2Cw1M4FwSEk4ur3lEqXrkrVzqFhuQCAqz2FlHp/s320/surya-dev.gif" width="320" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
देवता के रूप में सृष्टि और पालन शक्ति के कारण सूर्य की उपासना सभ्यता के विकास के साथ विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग रूप में प्रारंभ हो गई, लेकिन देवता के रूप में सूर्य की वंदना का उल्लेख पहली बार ऋगवेद में मिलता है। इसके बाद अन्य सभी वेदों के साथ ही उपनिषद आदि वैदिक ग्रंथों में इसकी चर्चा प्रमुखता से हुई है। निरुक्त के रचियता यास्क ने द्युस्थानीय देवताओं में सूर्य को पहले स्थान पर रखा है।</div>
<div style="text-align: justify;">
सूर्य के मानवीय रूप की कल्पना उत्तर वैदिक काल के अंतिम कालखंड में होने लगी। इसने कालांतर में सूर्य की मूर्ति पूजा का रूप ले लिया। पौराणिक काल आते-आते सूर्य पूजा का प्रचलन और अधिक हो गया। अनेक स्थानों पर सूर्य देव के मंदिर भी बनाए गए। पौराणिक काल में सूर्य को आरोग्य देवता भी माना जाने लगा था। सूर्य की किरणों में कई रोगों को नष्ट करने की क्षमता पाई गई। ऋषि-मुनियों ने अपने अनुसंधान के क्रम में किसी खास दिन इसका प्रभाव विशेष पाया। संभवत: यही छठ पर्व के उद्भव की बेला रही हो। भगवान कृष्ण के पौत्र शाम्ब को कुष्ठ हो गया था। इस रोग से मुक्ति के लिए विशेष सूर्योपासना की गई, जिसके लिए शाक्य द्वीप से ब्राह्मणों को बुलाया गया था।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
सूर्योपासना का यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से मध्य काल से वर्तमान काल तक भारत के साथ साथ विश्वभर मे प्रचलित व प्रसिद्ध हो गया है। कार्तिक मास की अमावस्या को दीपावली के तुरंत बाद मनाए जाने वाले इस चार दिवसीय व्रत की सबसे कठिन और महत्वपूर्ण रात्रि कार्तिक शुक्ल षष्टी की होती है। इसी कारण इस व्रत का नामकरण छठ व्रत हो गया। वैसे तो कार्तिक मास में भगवान सूर्य की पूजा करने का विधान है ही पर कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में षष्ठी तिथि पर स्वास्थ्य से संबंधित समस्याएं न हों इसलिए सूर्य देव की विशिष्ट अराधना करने का विधान है क्योंकि इस समय सूर्य नीच राशि में होता है तथा विज्ञान की मानें तो कार्तिक मास में ऊर्जा और स्वास्थ्य को उच्च रखने के लिए सूर्य पूजन अवश्य करना चाहिए। वैसे तो प्रतिदिन दिन का आरंभ सूर्य उपासना से करना चाहिए, संभव न हो तो उनके प्रिय दिन रविवार को अवश्य ये काम करना चाहिए।सूर्य की शक्तियों का मुख्य श्रोत उनकी पत्नी ऊषा और प्रत्यूषा हैं। छठ में सूर्य के साथ-साथ दोनों शक्तियों की संयुक्त आराधना होती है। प्रात:काल में सूर्य की पहली किरण (ऊषा) और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण (प्रत्यूषा) को अघ्र्य देकर दोनों का नमन किया जाता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #073763; font-size: large;"><b>पौराणिक कथाएँ</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
छठ पूजा की परंपरा और उसके महत्व का प्रतिपादन करने वाली अनेक पौराणिक और लोक कथाएँ प्रचलित हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #073763;">रामायण में </span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
एक मान्यता के अनुसार लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की। सप्तमी को सूर्योदय के समय पुनः अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशिर्वाद प्राप्त कियाथा।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #073763;">महाभारत में </span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
एक अन्य मान्यता के अनुसार छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। सबसे पहले सूर्य पुत्र कर्ण ने सूर्य देव की पूजा शुरू की। कर्ण भगवान सूर्य का परम भक्त था। वह प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में ख़ड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देता था। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बना था। आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही पद्धति प्रचलित है।</div>
<div style="text-align: justify;">
कुछ कथाओं में पांडवों की पत्नी द्रोपदी द्वारा भी सूर्य की पूजा करने का उल्लेख है। वे अपने परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य की कामना और लंबी उम्र के लिए नियमित सूर्य पूजा करती थीं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #073763;"><br /></span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #073763;">पुराणों में </span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
एक कथा के अनुसार राजा प्रियवद को कोई संतान नहीं थी, तब महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराकर उनकी पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनाई गई खीर दी। इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र हुआ परंतु वह मृत पैदा हुआ। प्रियवद पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे। उसी वक्त भगवान की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई और कहा कि सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूं। राजन तुम मेरा पूजन करो तथा और लोगों को भी प्रेरित करो। राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
एक अन्य पौराणिक कथा अनुसार कार्तिक शुक्ल षष्ठी के अस्ताचल सूर्य एवं सप्तमी को सूर्योदय के मध्य वेदमाता गायत्री का जन्म हुआ था। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ से प्रेषित होकर राजऋषि विश्वामित्र के मुख से गायत्री मंत्र नामक यजुष का प्रसव हुआ था।भगवान सूर्य की आराधना करते हुए मन में गद्य यजुष की रचना की आकांक्षा लिए हुए विश्वामित्र के मुख से अनायास ही वेदमाता गायत्री प्रकट हुई थीं। ऐसे यजुष (ऐसा मंत्र जो गद्य में होते हुए भी पद्य जैसा गाया जाता है) को वेदमाता होने का गौरव प्राप्त हुआ था। यह पावन मंत्र प्रत्यक्ष देव आदित्य के पूजन, अर्घ्य का अद्भुत परिणाम था। तब से कार्तिक शुक्ल षष्ठी की तिथि परम पूज्य हो गई। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #073763; font-size: large;">छठ उत्सव का स्वरूप</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
छठ पूजा चार दिवसीय उत्सव है। इसकी शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को तथा समाप्ति कार्तिक शुक्ल सप्तमी को होती है। इस दौरान व्रतधारी लगातार 36 घंटे का व्रत रखते हैं। इस दौरान वे पानी भी ग्रहण नहीं करते। पहले दिन सैंधा नमक, घी से बना हुआ अरवा चावल और कद्दूकी सब्जी प्रसाद के रूप में ली जाती है। अगले दिनसे उपवास आरंभ होता है। इस दिन रात में खीर बनती है। व्रतधारी रात में यह प्रसाद लेते हैं। तीसरे दिन डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य यानी दूध अर्पण करते हैं। अंतिम दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य चढ़ाते हैं। इस पूजा में पवित्रता का ध्यान रखा जाता है; लहसून, प्याज वर्ज्य है। जिन घरों में यह पूजा होती है, वहां भक्तिगीत गाए जाते हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #073763;">नहाय खाय</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
पहला दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी ‘नहाय-खाय’ के रूप में मनाया जाता है। सबसे पहले घर की सफाइ कर उसे पवित्र बना लिया जाता है। इसके पश्चात छठव्रती स्नान कर पवित्र तरीके से बने शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत की शुरुआत करते हैं। घर के सभी सदस्य व्रती के भोजनोपरांत ही भोजन ग्रहण करते हैं। भोजन के रूप में कद्दू-दाल और चावल ग्रहण किया जाता है। यह दाल चने की होती है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #073763;">लोहंडा और खरना</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
दूसरे दिन कार्तीक शुक्ल पंचमी को व्रतधारी दिन भर का उपवास रखने के बाद शाम को भोजन करते हैं। इसे ‘खरना’ कहा जाता है। खरना का प्रसाद लेने के लिए आस-पास के सभी लोगों को निमंत्रित किया जाता है। प्रसाद के रूप में गन्ने के रस में बने हुए चावल की खीर के साथ दूध, चावल का पिट्ठा और घी चुपड़ी रोटी बनाई जाती है। इसमें नमक या चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है। इस दौरान पूरे घर की स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #073763;"><br /></span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #073763;">संध्या अर्घ्य</span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को दिन में छठ प्रसाद बनाया जाता है। प्रसाद के रूप में ठेकुआ, जिसे कुछ क्षेत्रों में टिकरी भी कहते हैं, के अलावा चावल के लड्डू, जिसे लड़ुआ भी कहा जाता है, बनाते हैं। इसके अलावा चढ़ावा के रूप में लाया गया साँचा और फल भी छठ प्रसाद के रूप में शामिल होता है।</div>
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शाम को पूरी तैयारी और व्यवस्था कर बाँस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और व्रति के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं। सभी छठव्रती एक नीयत तालाब या नदी किनारे इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दान संपन्न करते हैं। सूर्य को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है। इस दौरान कुछ घंटे के लिए मेले का दृश्य बन जाता है।</div>
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<b><span style="color: #073763;">उषा अर्घ्य</span></b></div>
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चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अघ्र्य दिया जाता है। ब्रती वहीं पुनः इक्ट्ठा होते हैं जहाँ उन्होंने शाम को अर्घ्य दिया था। पुनः पिछले शाम की प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होती है। अंत में व्रति कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं।</div>
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<span style="color: #073763; font-size: large;"><b>व्रत</b></span></div>
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छठ उत्सव के केंद्र में छठ व्रत है जो एक कठिन तपस्या की तरह है। यह प्रायः महिलाओं द्वारा किया जाता है किंतु कुछ पुरुष भी यह व्रत रखते हैं। व्रत रखने वाली महिला को परवैतिन भी कहा जाता है। चार दिनों के इस व्रत में व्रती को लगातार उपवास करना होता है। भोजन के साथ ही सुखद शैय्या का भी त्याग किया जाता है। पर्व के लिए बनाए गए कमरे में व्रती फर्श पर एक कंबल या चादर के सहारे ही रात बिताई जाती है। इस उत्सव में शामिल होने वाले लोग नए कपड़े पहनते हैं। पर व्रती ऐसे कपड़े पहनते हैं, जिनमें किसी प्रकार की सिलाई नहीं की होती है। महिलाएं साड़ी और पुरुष धोती पहनकर छठ करते हैं। ‘शुरू करने के बाद छठ पर्व को सालोंसाल तब तक करना होता है, जब तक कि अगली पीढ़ी की किसी विवाहित महिला को इसके लिए तैयार न कर लिया जाए। घर में किसी की मृत्यु हो जाने पर यह पर्व नहीं मनाया जाता है।’</div>
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ऐसी मान्यता है कि छठ पर्व पर व्रत करने वाली महिलाओं को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। पुत्र की चाहत रखने वाली और पुत्र की कुशलता के लिए सामान्य तौर पर महिलाएं यह व्रत रखती हैं। किंतु पुरुष भी यह व्रत पूरी निष्ठा से रखते हैं।</div>
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गीता प्रसारhttp://www.blogger.com/profile/08534319886409460254noreply@blogger.com